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मांगलिक दृष्टि हमेशा दूसरों के गुण दखती है, जिसमें उन्हें अपनाया जा संक और अपने दोष देखती है, जिससे उन्हें सुधारा जा सके । इस प्रकार यह दृष्टि अधिक से अधिक सजनों की सृष्टि करती है ।
अमांगलिक दृष्टि दूसरों को दु:खी देखकर खुश होती है: इसलिए दूसरों को सताने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करती है । उसे दुष्ट बनाकर ही दम लेती है ।
जल में डूबते किसी चूहे को एक हंस ने बचा लिया । उस समय वह मार ठण्ड के ठिठुर रहा था; इसलिए दया कर क उसे उसने अपने परवों के नीचे छिपा लिया, जिससे बाहर की ठंडी हवा उस न लग और शरीर की गर्मी से उसे राहत मिले; किन्तु राहत पाकर चूहे ने हंस क पंखों को ही कुतर डाला ? फलस्वरूप हंस उड़ नहीं सका । अमांगलिक दृष्टिवाले दुष्ट अपने उपकारी पर भी उपकार करनेवाले ऐसे ही वह जैसे हात हैं। - गरु कपा से प्राप्त मंगलमय दृष्टि ही रमयग्दृष्टि है - सम्यकाव हैसदिवचारकता है- शुद्ध भावना है, जिसको प्राप्त किये बिना प्रजा हो या प्रभुदर्शन, सामायिक हो या प्रतिक्रमण, भक्ति हो या भजन, तपस्या हो या प्रत्याख्यान- कोई भी धार्मिक क्रिया सफल नहीं हो सकती ! जैसा कि कल्याणमन्दिर स्तोत्र में कहा हैं :
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्तया । जातोऽस्मि तेन जन-बान्धव ! दुःखपात्रम्
यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या: ।। (हे जनबन्धु प्रभो ! मैंने आपंक उपदेशी को खूब सुना है, आपकी खूब पूजा की है तथा आपक खूब दर्शन किय हैं : फिर भी निायपूर्वक मैंने आपको भक्ति-भाव से मन में स्थापित नहीं किया; इसीलिए में दु:खों का पात्र बना हुआ हूँ; क्योंकि भावशून्य क्रियाएँ कभी सफल नही होती ।)
सद्गुरूओं के सान्निध्य से ज्ञानचक्षु खुलने पर अरूपी तत्त्व का साक्षात्कार होता है, जिसे आत्मा कहते हैं । यह एक नित्य तत्त्व हैं । शरीर बदल जाते हैं; परन्तु आत्मा नहीं बदलती । वह आनन्दमय होती है । प्रसन्न रहना और दूसरों को प्रसन्न रखना उसका स्वभाव होता है ।।
आत्मज्ञ सदा आशाओं को वश में रखते हैं । वे आशाओं के वश में नहीं रहते । वे जानते हैं :९८
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