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आशाया ये दासा -
स्ते दासा: सर्वलोकस्य । आशा दासी येषाम्
तेषा दासायते लोकः ।। (जा आशा क दास होत हैं, वे सारे संसार के दास होते हैं; किन्तु आशा जिनकी दासी होती है, उनका दास संसार होता है)
आशा, इच्छा, तृष्णा और भोगवासना ही जीव को भवभत्र में भटकाते हैं । यदि हम छाया को पकड़ने के लिए उसका पीछा करें, तो भागते-भागते थक जायग, परन्तु वह पकड़ में नहीं आयगी । यही हालत विषय सुखों के पीले भागने वाले जीवों की होती है ।
यदि हम छाया का पीछा छोड़ कर सूर्य की ओर मुँह करके खड़े हो जायँ- सूर्य की और दौंड तो छाया हमारे पीछे-पीछे भागती चली आयगी। इसी प्रकार जो लोग भोगवासना को पीठ दिखाकर मोक्षरूपी सूर्य की ओर · दौड़ लगाते हैं, भोग-विलास उनका पीछा करते हैं । स्वामी विवेकानन्द से एक महिला ने कहा :- “मैं चाहती हूँ कि आपके ही समान एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दूँ!"
इसका आशय स्पष्ट ही प्रणय निवेदन था; किन्तु अनासक्त भाव से सावधान होकर विवेकानन्द ने उत्तर दिया :- ! तुम मुझे ही अपना पुत्रा मान ला ।”
ज्ञानी वासना के बन्धन में नहीं नहीं फंसते । वासना की पूर्ति से प्राप्त क्षणिक सुख क बदले वे मोक्ष का स्थायी सुख पाने का प्रयास करते हैं।
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