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भोगों का त्याग
जीवन लेने के लिए नहीं देने के लिए है- माँगने क लिए नहीं, अर्पण करने के लिए है - संग्रह के लिए नहीं, वितरण के लिए है । किसी विचारक ने लिखा है :___“मत लो भले ही स्वर्ग मिलता हो; किन्त दे दो भले ही रवर्ग देना पड़े !”
सच्चा आनन्द त्याग में है, भोग में नहीं; सन्तोष में है, तृष्णा में नहीं। कहा है :
जो दस बीस पचास भये सत होइ हजार तु लाख बनेगी कोटि अरब्ब खरब्ब अनन्त धरापति होने की चाह जगेगी । स्वर्ग-पताल का राज करूँ तृघना मन में अति ही उपडेगी "सुन्दर" एक सन्तोष बिना शठ :
तेरी तो भूख कभी न मिटेगी ।। मृत्यु का बलावा आने पर सारी संपत्ति जब यहीं छोड़कर जाना है, तब लोभ क्यों किया जाय ?
आपंक घर पुण्य से प्राप्त परिवार होगा, पहरदार भी होगा; परन्तु मौत आकर जब आपके घर का द्वार खटखटायेगी, तब न कोई परिवार का सदस्य ही आपको बचा संकगा और न पहरेदार ही ! उस समय 7 प्रथम श्रेणी का चिकित्सक आपकी रक्षा कर संकगा और न कोई बेरिस्ता कोर्ट से स्टे और्डर (स्थगन-अदेश) ही ला सकेगा !
"संयोगा विप्रयोगान्ताः
मरणान्तं हि जीवितम् ।।" (सब संयोगों का अन्त वियोग से होता है और जीवन का अन्त मृत्यु से)
जब अन्त में सब का त्याग करना ही पड़ेगा, तब पहले से उनका त्याग क्यों न किया जाय ? यही सोचकर साधु-सन्त अनगार बन जाते है ।
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