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लोक मिले सुरलोक मिले विधि लोक मिले वैकुण्ठ हि जाई 'सुन्दर और मिले सब ही सुख
सन्त-समागम दुर्लभ भाई ।। जैसे पंप से पानी ऊपर चढ़ता है, वैसे ही सत्संग से मन ऊपर चढ़ता है ऊगामी बनता है; अन्यथा पानी की तरह मन का स्वभाव नीचे की और जाना है ।
मन माम जैसा है । शास्त्र श्रवण क संस्कारों से उसे उत्तम ढाँचे में ढाला जा सकता है, स्थल भोग से सूक्ष्म त्याग ओर ले जाया जा सकता है ।
बहरूपिय तरगाला ने साधवेष में रहकर मांगलिक सनाया तो उससे ऊदा मेहता का उद्धार हो गया । स्वयं तरगाला पर भी सुप्रभाव हुआ साधुवेष का और उसने सम्पत्ति का लोभ छोड़ दिया । साधु की संगति से नयसार का जीवन परिवर्तित हआ और उत्तरोत्तर उत्कर्ष पर पहुंचकर वह तीर्थंकर बना । विजय हारसूरीश्वर क समागम से अकबर अहिंसाप्रेमी बना और आचार्य हमचन्दार ने महाराजा कमारपाल को परम आहत बना दिया ।
एक कहावत है :- “जैसा खावे अन्न वेसा होत्र मन !"
सामिषभोजी की अपेक्षा निरामिष- भोजी के विचार अच्छे होते हैं । पेट में यदि अपवित्र आहार पहुँचगा तो आचार-विचार भी अपवित्र हो जायँगे ।
गोचरी क बाद एक साध को तत्काल नींद आ गई तो गरु को आशंका हुई । जिस सेठ के पर से बह साध आहार लाया था, उससे पूछने पर पता चला कि वह निर्माल्य आहार था । मन्दिर से लाया हुआ सस्ता माल उसने साधु का दान कर दिया था। उतरा हुआ भोजन ग्रहण करने से मनोवृत्ति भी उतर जाती है । रोटी के टुकड़े क लिए कुत्ता अपनी पूंछ हिलाता है; परन्तु हाथी गौरव के साथ मन-भर लड्डु खा जाता है । मन्दिर में अर्पित द्रव्य का उपयोग करने से संभ की उन्नति नहीं, अवनति होती है । पुरुषार्थ से अर्जिा द्रव्य के उपयोग से ही संघ की उन्नति हो सकती है ।।
पुरुषार्थ या श्रम क अभाव से आज घरों में क्या हालत हो रही है ? पहले पत्नी प्रेमपूर्वक अपने हाथों से रसोई बनाकर पतिदेव को परोसती थी; किन्न आज रसइया थाली में रोटी फेंक कर खिलाता है । रसोइये में प्रेम नहीं होता । उसकी दृष्टि वेतनपर होती है; भोजन की शुद्धि पर वह उतना ध्यान नहीं दे सकता जितना गृहिणी दे सकती है ।
अशुद्ध आहार से स्वास्थ्य भी गड़बड़ा जाता है :--
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