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जीवन में अधिक पाप और कम पुण्य । इससे विपरीत अधिक पुण्य और कम पाप वाला प्राणी धीरे-धीरे पार हो जाता है । पण्य और पाप का यह विवेक जैन धर्म सिखाता है ।
अहंकार से पापों में वृद्धि होती हैं; इसलिए जैन धर्म ने नमस्कार का महामन्त्रा दिया है । विनय अहंकार का विरोधी है । विद्या से विनय आता है । फल आने पर आम की शाखाएँ झुकती हैं; किन्तु ताड़ की शाखाएँ ऊंची हो जाती हैं । आम मधुर है और ताड़ मादक । विनय मधुर है और अहंकार मादक । बीज से फल पैदा होता है और फल से बीज ! इसी प्रकार विद्या से विनय उत्पन्न होता है और विनय से विद्या आती है; क्योंकि विनीत शिष्य को ही गुरुदेव शास्त्रों का रहस्य समझाते हैं, अविनीत को नहीं । अविनीत या अहंकारी अपने को बहुत बडा ज्ञानी समझ लेता है; इसलिए उसका विकास रुक जाता है । वह और अधिक समझना ही नहीं चाहता; इसलिए कोई उसे समझा भी नहीं सकता । कहा हैं : -
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धम्
ब्रह्माऽपि तं नरं न रंजयति ।। (अज्ञानी को सरलता से समझाया जा सकता है । विशेष ज्ञानी को "और भी अधिक सरलता से समझाया जा सकता है; परन्तु थोड़ा-सा ज्ञान पाकर जो अपने को महान् पण्डित समझ लेता है, उसे तो स्वयं ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता !)
हिन्दी में कहावत है :- “थोथा चना, बाजे घना !" इसी आशय को संस्कृत की इस सूक्ति में बहुत पहले ही नीतिकारों ने प्रकट कर दिया था :
"अल्पविद्यो महागर्वः ॥" (जिस में विद्या कम होती है, वह घमण्ड अधिक करता है)
संक्षेप में जो प्रभु का अनन्य भक्त है - जिसका विचार अनेकान्त से और आचार अहिंसा से अलंकृत होता है तथा जो विनयपूर्वक विद्या का अध्ययन करता रहता है, वही सच्चा जैन है ।
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