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" अहम् को “अर्हम् " बनाने के लिए आवश्यक है- परमात्मा का
निरन्तर ध्यान ।
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शुद्धि और सरलता से ही ऐसी योग्यता प्राप्त होती है, जिससे आकृष्ट होकर मुक्तिरमणी जीव को वरमाला पहिनाती है ।
ज्ञान और अनुभव का अभाव ही जीव को इच्छाओं का गुलाम बनाता है ।
ज्ञान से जो इन्द्रियाँ आत्मा को मोक्ष दिला सकती हैं, विषयासक्ति से वे ही नरक भी दिला सकती है
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हजारों नदियों के मिलने पर भी समुद्र नहीं भरता; उसी प्रकार हजारों इच्छाएँ पूर्ण करने पर भी मन नहीं भरता ।
जैसे जैसे आत्मा गुणस्थानों पर चढती जाती है, वैसे ही मोहराज का जोर बढ़ता जाता है और अनुकूल प्रलोभन उसे आकर्षित करने के लिए उठ खड़े होते हैं ।
मदनरेखा ने मणिरथ को समझाया
खाते !"
:--
"शिष्ट कभी उच्छिष्ट नहीं
आयुष्य अल्प है, मृत्यु का ठिकाना नहीं; अतः कल का काम आज और आज का काम अभी ( इसी समय ) कर लेना ही समझदारी है
यदि इस भव की भव्यता ( मानवजीवन की महत्ता ) समझ में नहीं आई तो आत्मा को दिव्यता कैसे प्राप्त होगी ?
साधर्मिक वात्सल्य से त्याग और प्रेम की भावना पृष्ट होती है । जगत् के लिए अर्थ और काम हैं, किन्तु जीवन के लिए धर्म और मोक्ष हैं ।
जिनवाणी हृदय को उसी प्रकार स्वच्छ करती है, जिस प्रकार वस्त्रों को साबुन या बर्तनों को राख अथवा इमली ।
'यदि जीवन का लक्ष्य निर्धारित न हो तो संकट के समय वह ठान (स्थान) छोड़ देता है, दाम (धन) खो बैठता है और हाम (हिम्मत ) हार जाता है ।
दूध स्थिर हो तभी दही जमता है; उसी प्रकार मन स्थिर हो तभी उसमें विद्या जमती है ।
ज्ञान के बिना धार्मिक क्रियाएँ नीरस (शुष्क ) होती हैं ।
थके हुए को लेटना पड़ता है - बड़बड़ानेवाले को मौन रहना पड़ता है ! इससे सिद्ध होता है कि शक्ति का उगम शान्ति है, तूफान नहीं ।
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