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कुछ (आत्मज्ञान) भरा ही नहीं जा सकता अर्थात् स्वयं ही स्वयं को
खोजने की मनः कामना उत्पन्न नहीं की जा सकती । * सिद्धान्तों का सब से विश्वसनीय मित्र परमात्मा है और सबसे बड़ा
दःख है-असन्तोष । * ज्ञान और क्रिया ये दोनों जीवनरथ के वे पहिये हैं, जो परमपद तक
गहुँचा सकते हैं । वाणी का विवक और व्यवहार की शुद्धि जीवनविकास के लिए आवश्यक है । किसी की प्रशंसा करना हो तो पाँच मिनिट में जीभ रुक जाती है; परन्तु यदि निन्दा करना हो तो बिना रुके जीभ घंटो चलती रहती हे- जरा भी नहीं थकती ! सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्रतीक अक्षत की तीन हरियो पर एक सौ आठ अक्षतों से अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला बनाई जाती है, जो पंचपरमष्टि के एक सौ आठ गुणों की स्मारिका है । अशभ विचारों को निर्वासित कर शुभ विचारों को प्रवेश देने से जीवन सन्तुलित रहता है । आज सर्वत्र जिस अनुपात में पुद्गलों (रुपयों) का उन्मूल्यन हुआ है, उसी अनुपात में मानवता का अवमूल्यन हो गया है । अज्ञान से कायरता, कायरता से भय और भय से दुःख होता है । भावी जीवन की भव्यता वर्तमान जीवन की भव्यता पर निर्भर है। हृदय की गहराई में ज्यों-ज्यों उतरते जायँग, त्यों-त्यों आत्मा का वास्तविक निर्मल स्वरूप दिखाई देने लगेगा सुदेव, सुगुरु और सधर्म से यदि मोक्ष जैसा सर्वोत्तम पद मिल सकता है तो फिर संसार में क्या नहीं मिल सकता ? नाक श्वासोच्छवास के लिए मिला है; उसकी क्षणिक तृप्ति के लिए पुष्पों के प्राण लेना अनुचित है । ट्रेन के डिब्बे में जब कोई नया यात्री घुसता है तो पहले लोग उसका विरोध करते हैं; किन्तु बाद में उससे मित्रता कर लेते हैं ! क्या यह मित्राता पहले नहीं की जा सकती ? सच्ची और मीठी बोली से, दया-दान से संयम (इन्द्रियों के और मन क निग्रह) से तथा सजनों का सन्मान करने से कोई भी व्यक्ति प्रसन्नता पा सकता है ।
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