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मणिचड़ :- बाह की अन्त्येष्टि के बाद महासती को विरक्ति हो गई। परन्तु यह गर्भवती थी । पुत्र को जन्म देकर उसका पालन-पोषण करना अपना प्रथम कर्तव्य मानती थी । यह पति की मृत्यु के बाद पापी मणिरथ जेठ अधिक सता सकता था; अत: भवन की अपेक्षा वन में निवास करना ही इस श्रेयस्कर लगा । फलस्वरूप यह चपचाप जंगल में जा पहँची। वहीं इसकी प्रसूति हुई । प्रसूति के बाद बच्चे को झोली में लिटाकर यह सरोवर में स्यान करने गई । स्रान करक वस्ा धारण करने के बाद एक बन गज ने इसे सूंड से उठाकर आसमान में उछाल दिया । उसी समय विद्याधर मणिराम ने इसक शरीर को विमान में झेल लिया था। फिर मदनरेखा के आग्रह रो विमान को अपने अन्त:पुर में ले जाने से पहले इसके द्वारा यहाँ लाया गया, जिससे ये दोनों दर्शन- वन्दन का लाभ उठा सकें।"
इस वृत्तान्त को सुन कर श्रोता अपने-अपने घरों को चले गये । देव ने सती से अनुरोध किया कि मुझे किसी भी तरह की सेवा का अवसर दिया जाय सती ने कहा कि में प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ; अत: आप मुझं साची सव्रताजी क समीप ले चलिये । देव विमान में बिठाकर साध्वी सुव्रताजी क निकट सती मदनरेखा को ले गया । मदनरेखा ने उन्हें वन्दन करक उनसे पंच महाव्रत ग्रहण कर लिय । इस प्रकार साध्वी जीवन अंगीकार करने के बाद साश्वी सुवताजी के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करती हुई वह तपस्या के द्वारा कर्मनिर्जरा करने लगी।
पीस-पच्चास वर्ष बीतने पर महाराज पद्मरथ भी मिराज को सिंहासन सौंपकर आत्मकल्याण की साधना में लग गये । इस प्रकार महाराज नमि मिथिला क नरेश बन गय ।
एक दिन विशालकर्ण नामक उनका प्रिय हाथी मदोन्मत्त होकर भाग निकला । मार्ग में आने वाले अनेक वृक्षो को सूंड से उखाड़ कर आसमान में उछालता हुआ विशालकर्ण मालवदेश की सीमा पर जा पहुँचा । वहाँ गांवों में ऊधम मचाने लगा । गरीबों की झोपड़ियों को गिराने लगा । उसकी भयंकर चिंघाड़ से स्त्री- पुरुष-वृद्ध बालक सभी थर थर काँपने लग ।
यह स्थिति देखकर गाँवों के सरपंच सुदर्शन नगर के राजमहल में पहँच और महाराज चन्द्रयश से प्रार्थना करने लगे कि वे उस हाथी से प्रजा की रक्षा करें ।
महाराज चन्द्रयश ने तत्काल गजविद्या में कुशल कुछ सैनिकों को भेज दिया । सेनिक मालवदेश की सीमा पर जा कर विशाल कर्ण को पकड़ लाये और महाराज चन्द्रयश क आदेशानुसार उसे गजशाला में बाँध
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