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गुरुमहिमा
बोलूँ? मैं शून्य पेड़ खड़ा नहीं कर सकता !
लोग चले गये; परन्तु उन्हें प्रवचन सुनने की इच्छा प्रबल थी। दूसरे दिन फिर से वे महात्माजी के दर्शनार्थ गये और उनको घेरकर बैठ गये। प्रवचन करने की प्रार्थना सुनकर उन्होंने फिर से वही प्रश्न सामने रख दिया - "क्या आप लोग ईश्वर के विषय में कुछ जानते
हैं ?"
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कल का अनुभव वे भूले नहीं थे । उत्तर बदलकर सब का प्रतिनिधित्व करते हुए एक श्रोता ने कहा :"जी हाँ, हम जानते हैं ईश्वर के विषयमें ।" मुनि :- :- "जब आप लोग ईश्वर के विषय में जानते ही हैं तो फिर मुझ से क्या सुनना चाहते हैं ? जो विषय आप जानते हैं, उस पर मैं क्या बोलूँ ? पीसे हुए आटे को और पीसकर मैं आपका और अपना समय बर्बाद करना नहीं चाहता।"
लोग फिर निराश होकर चले गये। तीसरे दिन फिर प्रातःकाल लोग वन्दनार्थ आये । आज फिर वे नया उत्तर सोचकर आये थे। किसी भी तरह मुनिराज के मुखारविन्द से उन्हें प्रवचन तो सुनना ही था । अत्यन्त आग्रह देखकर महात्माजी ने आज फिर प्रवचन प्रारंभ करने से पूर्व वही प्रश्न उठाया :- "क्या आप लोग ईश्वर के विषय में कुछ जानते हैं ?" श्रोताओं में से आधे लोगों की ओर से एक ने कहा :-' "नहीं जानते " शेष आधे लोगों का नेतृत्व करते हुए दूसरे व्यक्ति ने कहा :- "जानते हैं ।"
इस पर मुनिराज बोले :- "ठीक है आप में से आधे लोग ईश्वर के विषय में जानते हैं; शेष नहीं जानते । अब तो मेरा काम ही समाप्त हो गया। बोलने की कोई जरूरत ही नहीं रही; क्योंकि जो आधे लोग जानते है, वे न जाननेवाले आधे लोगों को समझा सकते हैं- समझा
दें ।"
गुरुमहिमा का पार कौन पा सकता है ?
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