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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मोक्ष मार्ग में बीस कदम, [मेरे पास धन नहीं और दुराशा मुझे छोड़ती नहीं है (मेरे काव्य से प्रसन्न होकर लोग मुझे धन भेंट करते रहेंगे- ऐसी आशा मेरे मनमें बैठी रहती है) लाड़-प्यार से बिगड़ा मेरा मन त्याग से कभी संकुचित नहीं होता! (पीछे नहीं हटता!) याच्या (याचना) से लघुता उत्पन्न होती है (महत्त्व घटता है) और आत्महत्या में पाप लगता है; इसलिए हे प्राणो! तुम स्वयं ही चले जाओ। विलम्ब करने से क्या लाभ ?] यह हार्दिक उद्गार सुनकर वह भूखा आदमी चुपचाप चला गया। उसे जाते हुए देखकर महाकविके हृदय से यह श्लोक प्रस्फुटित हुआ : व्रजत व्रजत प्राणाः! अर्थिनि व्यर्थतां गते।। पश्चादपि हि गन्तव्यम् क्व सार्थः पुनरीद्दशः? । [याचक निराश लौट जाने पर हे प्राणो! तुम भी चले जाओ-चले जाओ! बादमें भी तो तुम्हें (कभी-न-कभी आयु पूरी होने पर) जाना ही है; परन्तु तब इतना अच्छा साथ कहाँ मिलेगा?] और सचमुच इस अन्तिम श्लोक के साथ ही महाकविने अन्तिम साँस छोड़ दी! उदारता का ऐसा उत्तम उदाहरण सारे विश्वमें दीपक लेकर ढूंढनेपर भी नहीं मिलेगा-ऐसा मैं समझता हूँ। इस उदारताका शतांश भी जीवन को आनन्द की सुगन्ध से भर सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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