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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम, [मेरे पास धन नहीं और दुराशा मुझे छोड़ती नहीं है (मेरे काव्य से प्रसन्न होकर लोग मुझे धन भेंट करते रहेंगे- ऐसी आशा मेरे मनमें बैठी रहती है) लाड़-प्यार से बिगड़ा मेरा मन त्याग से कभी संकुचित नहीं होता! (पीछे नहीं हटता!) याच्या (याचना) से लघुता उत्पन्न होती है (महत्त्व घटता है) और आत्महत्या में पाप लगता है; इसलिए हे प्राणो! तुम स्वयं ही चले जाओ। विलम्ब करने से क्या लाभ ?]
यह हार्दिक उद्गार सुनकर वह भूखा आदमी चुपचाप चला गया। उसे जाते हुए देखकर महाकविके हृदय से यह श्लोक प्रस्फुटित हुआ :
व्रजत व्रजत प्राणाः! अर्थिनि व्यर्थतां गते।।
पश्चादपि हि गन्तव्यम् क्व सार्थः पुनरीद्दशः? । [याचक निराश लौट जाने पर हे प्राणो! तुम भी चले जाओ-चले जाओ! बादमें भी तो तुम्हें (कभी-न-कभी आयु पूरी होने पर) जाना ही है; परन्तु तब इतना अच्छा साथ कहाँ मिलेगा?]
और सचमुच इस अन्तिम श्लोक के साथ ही महाकविने अन्तिम साँस छोड़ दी! उदारता का ऐसा उत्तम उदाहरण सारे विश्वमें दीपक लेकर ढूंढनेपर भी नहीं मिलेगा-ऐसा मैं समझता हूँ। इस उदारताका शतांश भी जीवन को आनन्द की सुगन्ध से भर सकता है।
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