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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandiri - मोक्ष मार्ग में बीस कदम. से जेलें भर गई। श्रावक हेमूको यह सब देखकर बहुत दुःख हुआ।पीड़ितोंको अत्याचार से बचाना उसका धर्म था। कर्त्तव्य था। अपने श्रावक बन्धुओं को बचाने का वह उपाय सोचने लगा। ईर्ष्यालु मुल्लाओंने सोचा कि हेमू अच्छा कैंचीमें फँस गया है। यदि वह अपने समाज के भाईयों को बचाने के लिए कुछ नहीं करता तो वे सब इससे नाराज होंगे कि प्रधानमन्त्री होकर भी हमें बचा नहीं सका! कितना खुदगर्ज है ? और यदि उन्हें बचाने के लिए कुछ भी किया तो उससे बादशाह सलामत नाराज होंगे और इसे पद से हटा देंगे। बादशाह जब शिकार खेलने जाते थे, तब अपनी राजमुद्रा प्रधानमन्त्री को सौंप जाते थे। एक दिन जब वे शिकार खेलने गये तो पीछे से एक कागज पर राजमुद्रा लगाकर बादशाह की ओर से हेमूजीने यह फरमान निकाल दिया कि टैक्स न चुकाने के अपराधमें जिन-जिनको जेलमें डाला गया है, उन सबको छोड़ दिया जाय। किसकी ताकत थी? जो राजमुद्रा से निकले फरमान को अमल में लाने से इन्कार करता? सबके सब जेल से छोड़ दिये गये। उधर बादशाह जब शिकार से लौटा तो ईर्ष्यालुओंने कहा :- “जहाँपनाह! आपकी गैरहाजरी में आपकी राजमुद्रा का दुरुपयोग करके हेमूने सभी श्रावकों को जेल से रिहा करवा दिया। अब इस बात की उसे क्या सजा दी जाय? सो आप सोचें।" यह सुनकर सचमुच बादशाहको गुस्सा आ गया। उन्होंने प्रधानमन्त्री हेमू को बुलाकर तेज आवाजमें कहा,- “क्या हमने तुम्हें राजमुद्रा इसलिए दी थी कि हमारी गैरहाजरी में तुम टैक्स न चुकाने वाले गुनहगारों को भी रिहा कर दो? जानते हो, इसका नतीजा क्या होगा? प्रधानमन्त्रीपद से ही नहीं, तुम्हें अपने प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़ेगा! अपनी सफाई में तुम कुछ कहना चाहते हो तो कहो।" _हेमूने कहा :- “जहाँपनाह! मैंने आपका नमक खाया है। मैं आपको धोखा नहीं दे सकता। आपका बुरा नहीं सोच सकता। जो लोग जेल में डाले गये थे, वे सब आपको बददुआ दे रहे थे।खुदासे कह रहे थे कि आपकी सल्तनत का सत्यनाश हो। मैं आपका सेवक हूँ। आपके सल्तनत की रक्षा करना मेरा फर्ज है; इसलिए मैंने उन सब को रिहा करवा दिया। रिहा होते ही वे खुदासे आप के लिए दुआएँ माँगने लगे। कहने लगे कि हमारे बादशाह बहुत अच्छे हैं। उन्हें सदा सलामत रखना। अब आप ही सोचिये, मैंने क्या बुरा किया!" यह सुनकर बादशाह खुश हो गये और हेमू का वेतन उन्होंने और बढ़ा दिया। बुद्धि से ईर्ष्या इसी तरह हारती है। ६४ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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