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विनय से ही योग्यता उत्पन्न होती है (जो शिष्यत्व का लक्षण है)
आचार्य हरिभद्रसूरि ने विनय को जिनशासन (जैन धर्म) का मूल (कारण) माना है :विणओ सासणमूलो विणीओ संजओ भवे ।
विणवा विप्पमुककस्स कओ धम्मो कओ तवो?
विनय शासन का मूल है। विनीत ही संयत (संयमी) होता है। जो विनय से रहित है, उसमें धर्म कहाँ ? तप कहाँ ?
दशवैकालिक सूत्र की एक गाथा के अनुसार धर्म का मूल विनय है और फल मोक्ष । संसार भाडे का मकान है, जिसे छोडना पडेगा या बदलना पडेगा; परन्तु मोक्ष घर का ( खुद का) मकान है, उसे छोड़ने के लिए कोई कह नहीं सकता। उसमें केवल अपना अधिकार
है ।
चरैवेति चरैवेति ।
चलते रहो, निरन्तर चलते ही रहो
महात्मा बुद्ध बोले :
जिसमें विनय है, उसमें विवेकपूर्ण श्रद्धा है अर्थात् सम्यगदर्शन है। जिसमें सम्यग्दर्शन है, उसी को सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो सकता है अर्थात् उसमें संपूर्ण विवेक जागृत हो सकता हैवह हेय-उपादेय-ज्ञेय को समझ सकता है। उसके बाद सम्यक् चारित्र (सर्वत्यागमय) संपूर्ण निव्याप जीवन आता है, जो मोक्ष तक ले जाता है। जिस प्रकार पक्षी दो पंखो से ही उड़ सकता है, उसी प्रकार मोक्ष तक उडान वही जीव भर सकता है, जिसमें ज्ञान और आचरण के दोनों पंख लगे हों :
ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ॥
ज्ञान और क्रिया (ज्ञान के अनुसार कार्य) से मोक्ष प्राप्त होता है
ज्ञान प्रकाश है तो क्रिया गति है। ज्ञान अपने आपमें लँगडा है तो क्रिया अन्धी है। लँगडा अन्धे के कन्धे पर सवार हो जाय तो दोनों अपनी मंजिल तक आसानी से पहुँच जाय । ज्ञान के प्रकाश में धर्म करे-क्रिया करे तो मोक्ष की मंजिल दूर नहीं रहेगी ।
वैदिक ऋषि कहते थे :
पमादो मच्चुनो पजम् ।।
प्रमाद मृत्यु का कारण है
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प्रभु महावीर ने कहा था :
• मोक्षमार्ग •
समयं गोयम! मा पमायएँ ।।
हे गौतम! तू एक क्षण का भी प्रसाद मत कर
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