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२०. मोक्षमार्ग
मुमुक्षु मित्रों!
कोई व्यक्ति आपके निकट से भागता हुआ जा रहा हो और आप बीच में ही उसे रोक कर पूछें कि भाई ! इतनी तेजी से आप कहाँ जा रहे हैं ?
यदि इसके उत्तर में वह कहे :- "मुझे पता नहीं है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ।" तो आप उसे पागल समझेंगे; परन्तु अपना लक्ष्य स्थिर किये बिना जीवन की दौड़ धूप में लगे रहने वाले हम भी क्या वैसे ही पागल नहीं है ?
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बिना लक्ष्य के भागने वाले “यात्रा नहीं करते, भटकते हैं!" जीवन यदि यात्रा है तो मोक्ष उसकी मंजिल है, जिसे प्राप्त करना प्रत्येक भव्य प्राणी का अन्तिम लक्ष्य होना चाहिएँ ! मोक्ष जीवन की समग्रता है । समस्त कामनाओं से मुक्ति ही मोक्ष है। दीपक जब बुझता है, तब उसकी लौ कहाँ चली जाती है ? जिस प्रकार वह लुप्त हो जाती है उसका पुनरागमन नहीं होता उसी प्रकार जो आत्मा, जन्म मरण का नाश कर संसार से लुप्त हो जाती है - जिसका फिर पुनरागमन नहीं होता जो फिर से किसी शरीर के बन्धन में नहीं आती, हम कहते हैं कि उसका दीपक की लौ के समान निर्वाण हो गया है। इसी स्थिति का दूसरा नाम मोक्ष है। महत्वाकांक्षा और संतोष- दोनों गुण अच्छे हैं; परन्तु दोनों का क्षेत्र अलग-अलग है। संसार के लिए सन्तोष चाहिये और मौक्ष के लिए महत्त्वाकांक्षा । भौतिक सुख सामग्री की आकांक्षा अनन्त होती है। वहाँ सन्तोष अपनाने की बात कही जाती है; परन्तु मोक्ष की आकांक्षा शान्त होती है-मोक्ष की प्राप्ति के बाद वह समाप्त हो जाती है; इसलिए मोक्ष की महत्त्वाकांक्षा बनी रहनी चाहिये। कब मैं पूर्ण बनूँ ? कब परमात्मा के समान बनूँ ? कब अनन्त शान्ति प्राप्त करूँ ? कब जन्म-जरा-मरण के चक्र से छूयूँ ? कब सर्वज्ञ सर्वदर्शी बनूँ ? कब विषय कषाय से- -जय पराजय से - मानापमान से - निन्दा प्रशंसा से - चंचल मनोवृत्तियों से ऊपर उहूँ ? ऐसी तीव्र कामना ही मनुष्य को मोक्ष मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है ।
आत्मा के स्वरूप का भान हो- आत्मा की शक्तियों में विश्वास हो और समतामय व्यवहार हो तो मोक्ष अधिक दूर नहीं रहता। इससे विपरीत भौतिक सामग्री की अतृप्त आकांक्षा में, मोह-ममता - माया में, प्रमाद में, विलास की दशा में मृत्यु प्राप्त हो तो अनन्त संसार का एडवांस बुकिंग हो जायगा !
शिवो भूत्वा शिवं यजेत् ॥
[शिव बन कर शिव की पूजा करें ]
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