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•विवेक. गणधर गौतम स्वामी ने जब पूछा :--
कहं चरे कहं चिढे? कहं आसे कहं सए?
कहं भुंजंतो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धई? [हे प्रभो! कैसे चलना चाहिये ? कैसे खडे रहना चाहिये ? कैसे बैटना चाहिये ? कैसे सोना चाहिये ? कैसे खाना चाहिये और कैसे बोलना चाहिये कि जिससे पापकर्मका बन्ध न हो ?] तब प्रभु महावीर ने कहा :
जयं चरे जयं चिट्टे जय आसे जयं सए।
जयं भुजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धई ।। [यतनापूर्वक (सावधानी पूर्वक या विवेक पूर्वक) चले, खडा रहे, बैठे, सोये खाये और बोले तो पापकर्म का बन्ध नही हो पाता!]
सुन्दर सजी हुई बहुमूल्य कार में भी अगर ब्रेक न हो तो उसमें कोई बैठना पसंद नही करता। वाणी में भी इसी प्रकार विवेक का ब्रेक जरूरी है, अन्यथा शब्द कितने भी सुन्दर हो, उन्हें कोई सुनना पसंद नही करता।
पाण्डवों ने एक नया राजमहल बनवाया। उसे देखने के लिए कौरवों को आमन्त्रित किया। वे आ गये। पांडव दिखाने लगे। उसमे फर्श ऐसी बनाई गई थी कि सब को वहाँ जल का भ्रम होता था। कौरव धोती ऊँची करके चलने लगे। पाण्डवों को हँसी आने ही वाली थी, किन्तु वे बडे विवेकी थे, इसलिए उन्होंने हँसी को मन में दबा लिया।
कुछ आगे बढ़े वहाँ जल भरा था, किन्तु उसमें फर्श का भ्रम होता था । कौरव बेखटके चल पडे तो छपाक से पाँव जल में पड़ा धोती गीली हो गई।
फिर ऐसा द्वार आया, जिसमें दीवार का भ्रम होता था, कौरवाधिपति दुर्योधन वहाँ रूक गये। जब कहा गया कि आगे बढिये, यह दिवार नही, द्वार है, तब आगे बढ़े।
कुछ और आगे चलने पर ऐसी दीवार आई, जिसमें द्वार का भ्रम होता था! दुर्योधन आगे बढे तो उससे हाथ और छाती टकरा गई। इस बार भी पांडवों ने मन-ही-मन हँसी रोक ली, परन्तु पाण्डवों की पत्नी महरानी द्रौपदी की हँसी नही रूक पाई। वाणी पर ब्रेक न रहा। वह बोल उठी- “अन्धों के बेटे भी आखिर अन्धे ही होते है!"
दुर्योधन ने अपना और अपने पिता का अपमान उस वाक्य में देखकर क्रोध में प्रतिज्ञा कीः- "हे द्रौपदी! इस अपमान के बदले यदि तुझे भरी सभा में अपने इन ऊरूओं (घुटनों के ऊपर का भाग 'ऊरू' कहलाता है, जिसे कदली की उपमा देते है) पर न बिठाया तो मेरा नाम दुर्योधन नही।"
इससे उत्तेजित हो कर भीम ने भी प्रतिज्ञा की :चञ्चदूभुजभ्रमितचण्डगदाभिघात सञ्चूर्णितोरूयुगलस्य सुयोधनस्य। स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणणाणि सत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि! भीमः॥
-वेणी संहारम्
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