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•विवेक. विवेकिनमनुप्राप्ताः गुणा यान्ति मनोज्ञताम्॥
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम्। [विवेकी में रहने वाले अन्य गुण उसी प्रकार सुशोभित होते है, जिस प्रकार सोने के आभूषण में जडे हुए रल]
सोने से रत्न की शोभा होती है और रत्न से सोने की। उसी प्रकार अन्य गुणों से विवेक की शोभा होती है और विवेक से अन्य गुणों की।
शरीर में कान खुले हैं, आँखो पर भी साधारण पलके है, नाक खुली है, परन्तु जीभ मुँह में बन्द है । बत्तीस पहरेदार है। और वे भी दो होठों से ढ़के है। जीभ की यह स्थिति बताती है कि उसके प्रयोग में विवेक की सबसे अधिक जरूरत है। जीभ से ही किसी कवि ने कहा
रे जिह्वे! कुरू मर्यादाम् भोजने वचने तथा।।
वचने प्राण-सन्देहो भोजने चाप्यजीर्णता॥ [हे जीभ! भोजन और वचन में तूं संयम रख, अन्यथा असंयंत वचन बोलने पर प्राण जा सकता है और भोजन में मर्यादा न रहने पर अजीर्ण हो सकता है (दोनों में भयंकर परिणाम की पूरी सम्भावना है)]
प्राकृतिक चिकित्सक कहते है कि जो कुछ हम खाते है, उसके एक तिहाई से हम जीवित रहते हैं और दो तिहाई से डॉकटर!
इसका मतलब यह है कि हम जितना भोजन ग्रहण करते है, उसका तृतीयांश ही हमारे जीवन के लिए पर्याप्त है। उससे अधिक भोजन अजीर्ण पैदा करता है और :
अजीर्णे प्रभवाः रोगाः॥ [सारे रोग अजीर्ण से ही उत्पन्न होते है]
रोग पैदा होने पर हमें डॉक्टरों के द्वार खटखटाने पडते है- उन्हें मुँहमाँगी फिस दे कर इलाज कराना पडता है। इस प्रकार डॉक्टरों की आजीविका प्राप्त होती है।
जीभ का दूसरा कार्य है- वाणी। सच बोलने में भी विवेक न हो तो वह उसी प्रकार घातक हो जाता है, जिस प्रकार डिसेन्ट्री में दूध । महर्षियोंने यही सोचकर कहा था :
सत्यं ब्रूयातिप्रयं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।। [सच बोलना चाहिये । मधुर बोलना चाहिये ऐसा सत्य न बोला जाय कि-जो अप्रिय हो और ऐसा प्रिय भी न बोला जाय, जो असत्य हो। बस, यही सनातन धर्म है]
__ अन्धे को “सूरदासजी'' कहा जाय तो उसे अप्रिय नही लगेगा । यदि कोई कहे कि आप बेईमान है-चोर है तो आप नाराज हो जायेंगे, परन्तु कहा जाय कि आप को ईमानदार बनना
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