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•परोपकार. घर आते ही कवि ने एक पैकेट भेजा। उस पर लिखा था- “आवश्यकता होने पर ही यह पैकेट खोलें और भीतर रखी दवा का सेवन करें।"
महिला ने ज्यों ही पैकेट खोला, त्यों ही देखने में आया कि उसके भीतर सोने की दस मुहरें रखी हैं। इससे पतिदेव की संपूर्ण बीमारी भी भाग गई। पति-पत्नी ने कवि की उदारता को प्रणाम किया।
परोपकरणं कायाद् असारात्सारमादरेत् [परोपकार ही इस नश्वर शरीर का सार है-ऐसा मानकर सार निकाल लेना चाहिये (उपकार करते रहना चाहिये)]
धनाभाव जिस प्रकार बीमारी का कारण है, उसी प्रकार झगड़े का भी कारण है।
राजा भोज वेष बदल कर प्रजा का दुःख दर्द जानने के लिए धारा नगरी में भ्रमण किया करते थे। एक दिन वे किसी निर्धन ब्राह्मण के घर के समीप होकर गुजर रहे थे। घर के भीतर से लड़ने-झगड़ने और मारपीट करने की आवाज आ रही थी। दो औरतों की और एक पुरुष की आवाज़ थी। तीनों बड़े थे। सम्भवतः वे माता, पुत्र और पुत्रवधू थे। राजा भोज ने उस घर की क्रमसंख्या नोट कर ली।
दूसरे दिन ब्राह्मण को राजसभा में बुलाया। ब्राह्मण के आने पर राजा ने पूछा :"ब्रह्मदेव! आप तो विद्धान हैं, पढ़े-लिखे हैं, कवि हैं, फिर अपने परिवार से आप झगड़ क्यों रहे थे?"
ब्राह्मण :- "महाराज! ऐसा कलह तो हमारे कुटुम्ब में होता ही रहता है; क्यों कि किमी भी सदस्य को किसी भी अन्य पारिवारिक सदस्य से सन्तोष नहीं हैं; परन्तु इस असन्तोष के लिए दोषी कौन है ? यह बात समझ में नहीं आती :-'
अम्बा तुष्यति न भया न तया, सापि नाम्बया न भया।
अहमपि न तया वद राजन्! कस्य दोषोयम्॥ [माता मुझसे और उस (मेरी पत्नी) से सन्तुष्ट नहीं है। वह (मेरी पत्नी) भी माता से और मुझसे सन्तुष्ट नहीं है और स्वयं मैं भी उन दोनों (माता और पत्नी) से सन्तुष्ट नहीं हूँ। हे गजन्! आप ही कहिये कि इसमें दोष किसका है ?]
ब्राह्मण की बात सुनकर राजा ने कहा :- “हे ब्राह्मण!" इसमें दोष तुम्हारी निर्धनता का है क्योंकि :
नश्यति विपुलमतेरपि बुद्धिः पुरुषस्य मन्दविभवस्य।
घृत-लवण-तैल तण्डुल-वस्त्रेन्धन-चिन्तया सततम्॥ [जिसके पास धन नहीं होता, उस पुरुष की विशाल बुद्धि भी घी, नमक, तेल, चाँवल, वस्त्र और ईधन की चिन्ता से लगातार नष्ट होती रहती है]
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