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•निर्भयता. विषय-कषाय में डूबे हुए प्राणियों के बीच रहकर हम भी कायर बन गये हैं। महावीर के उपासक होकर भी हमारे भीतर भीरूता ने आसन जमा रक्खा है ? जिनवाणी के श्रवण से आत्मबोध होने पर हमारी वीरता भी जागृत हो सकती है। शास्त्ररूपी सरोवर में झाँकने पर हमें भी मालूम हो जायगा कि महावीर की और हमारी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है । यह बोध होने पर यदि हम भी सावधानी से गर्जना करें तो देखेंगे कि विषय-कषाय रूपी समस्त पशु इधर-उधर भाग रहे हैं। हमें परेशान करने या डराने की किसी में हिम्मत ही नहीं है।
___ एक भाई साधुओं को बड़ी श्रद्धा से वन्दन करता था और उधर दूकान पर ताले को भी!! क्यों ? उसे भय था कि लक्ष्मी कहीं रूठ कर अन्यत्र न चली जाय। लोभवश वह लक्ष्मी को अनौपचारिक (हार्दिक) वन्दन करता था और लक्ष्मी त्यागी को औपचारिक (दिखावटी)! एक ओर प्रतिक्रमण में अट्ठारह पापों के लिए “मिच्छामि दुक्कड" कहता था-प्रभु नाम की माला के मनके गिनता था और आधी रात को तिजोरी के सामने बैठकर उन्हीं उँगलियों से नोटों की गड्डियाँ भी गिनता था! इस प्रकार डबल रोल अदा करता था।
धन का संग्रह भी भय का एक बहुत बड़ा कारण है। गुरु गोरखनाथ को किसी भक्त ने सोने की एक ईट भेंट की थी। अपनी झोली में उसे रखकर अपने शिष्य के साथ वे किसी गाँव से दूसरे गाँव जा रहे थे।
रास्ते में जहाँ भी वे ठहरते, वहाँ अपने शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ से कहते कि यहाँ कोई भय तो नहीं है।
जब अनेक बार उनके मुंह से यही वाक्य निकला तो मत्स्येन्द्रनाथ ने उसका कारण जानना चाहा। एक कुएँ के तट पर शिष्य को बिठाकर जब गुरुजी शौच से निवृत्त होने चले गये, तब मत्स्येन्द्रनाथ ने गुरुजी की झोली संभाली। उसमें सोने की ईंट थी।ईट बाहर निकालकर मल्येन्द्रनाथ ने कुएं में डाल दी। बदले में उसी वजन का एक पत्थर झोली में रख दिया।
फिर स्नान-ध्यान से निपटकर दोनों आगे बढे। रास्ते में फिर से कहीं ठहरने का अवसर आया। गुरुजी बोले :-“यहाँ कोई भय तो नहीं है ?"
शिष्य ने कहा :- “सन्यासी को क्या भय हो सकता है भला? जो भय था, उसे तो मैं कुएँ में डाल आया हूँ। आप निश्चिन्त रहिये।"
__ गुरुजी ने झोली सँभाली तो उसमें पत्थर निकला। पत्थर उन्होंने दूर फेंक कर शिष्य को इस बात के लिए धन्यवाद दिया कि उसने भय को दूर भगाकर बहुत प्रशंसनीय कार्य किया है। शंकराचार्य ने लिखा है :
अर्थमनर्थ भावय नित्यम् नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्। पुत्रादपि धनभाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिता नीतिः॥
-मोहमुदरः
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