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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्भयता. [जब तक भय निकट न आ जाय तभी तक उससे डरना चाहिये (उससे बचने का उपाय सोचना चाहिये), परन्तु भय यदि सामने आकर खड़ा हो जाय तो बेखटके उस पर प्रहार करना चाहिये ] सज्जन हमेशा निर्भय होते है, क्योंकि उनके जीवन में कोई कौटिल्य, दुरावछिपाव, हिसाब में घोटाला आदि नहीं होता। कहा है : उसको डर किस बात का, जिसका सही हिसाब। सत्पुरुषों की जीवनी, 'चन्दन' खुली किताब।। उस खुली किताब से लोग निर्भयता का पाठ पढ़ सकते हैं। जो निर्भय होते हैं, वे दूसरों मे भी निर्भयता देखना चाहते हैं; इसलिए उनका व्यवहार सौम्य हो जाता है। इससे ठीक विपरीत जो स्वयं डरपोक होते हैं, वे ही दूसरों को डराने का प्रयास करते हैं। संक्रामक बीमारी की तरह वे भय को सर्वत्र फैलाते रहते हैं। ऐसे लोगों के सम्पर्क से दूर . रहने में ही अपना कल्याण है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में प्रभु महावीर ने फरमाया है : भाइयव्वं! भीयं खु भया अइन्ति लहुयं ॥ [मत डरो। डरे हुए के आसपास भय शीघ्र मँडराने लगते हैं।] डरपोक के आसपास अधिक से अधिक संख्या में भय जमा हो जाते हैं, इसलिए निर्भयता को हृदय में विराजमान करके ही व्यवहार के क्षेत्र में उतरना चाहिये। सुना है कि बगदाद में एक बार पचास हजार आदमी महामारी से मर गये थे। उनमें महामारी से वास्तव में जो लोग मरे थे, उनकी संख्या पांच हजार से अधिक नहीं थी। शेष पैंतालील हजार की मृत्यु महामारी के डर से हुई थी। महामारी की अपेक्षा से भी महामारी का डर नौ गुना अधिक घातक सिद्ध हुआ था। बिहार प्रान्त के किसी गाँव में एक आदमी बरसात से पहले अपनी झोंपड़ी की छत पर कवेलू जमा रहा था। उसे लगा कि उँगली में कोई काँटा चुभ गया है। उसने कोई पर्वाह नहीं की। शान्ति से पूरी छान जमा दी। साल भर बाद जब फिर से कवेलू जमाने लगा, तब उसे उसी स्थान पर मरे हुए एक साँप का सूखा शरीर दिखाई दिया। उसे याद आया कि गये साल जिसे मैंने काँटा समझ लिया था, वह वास्तव में सर्पदंश था! वह भय के मारे धड़ाम से नीचे फर्शपर आ गिरा, बेहोश हो गया और थोड़ी ही देर बाद उसके प्राणपँखेरू उड़ गये। इस प्रकार उसने यह प्रमाणित कर दिया कि साँप से भी भयंकर साँप का डर होता है। __ चार बालक विद्या पढ़ने के लिए बनारस गये । जाने से पहले पड़ोस में रहने वाली एक बुढिया ने एक-एक लोटा छाछ भर कर सब को पिलाई। छाछ पीकर वे रवाना हो गये। बारह वर्ष बाद पंडित बनकर वे लौटे। उस बुढिया को जब प्रणाम करने गये, तब वह बोली :- “अच्छा १२३ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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