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.त्याग. कर लेगा। साधु और श्रावक के त्यागों का यही अन्तर है।. साधु होलसेल में त्याग करता है और श्रावक रिटेल में!
सद्गुणों के ढेर से भी अकेला त्याग अधिक वजनदार लगता है। नीतिकारों ने कहा
त्याग एको गुणः श्लाध्यः किमन्यैर्गुणराशिभिः। त्यागाजगति पूज्यन्ते पशु-पाषाण-पादपाः॥
-सुभाषितरत्नभाण्डागारम् [त्याग ही अकेला प्रशंसनीय गुण है; ढेर सारे अन्य सद्गुणों से क्या मतलब ? त्याग से इस संसार में पशु (गाय आदि), पाषाण (प्रतिमा आदि) और वृक्ष तक पूजे जाते हैं (तो फिर मनुष्य की क्या बात?)] त्याग के आनन्द को भोगने की प्रेरणा देते हुए किसी ने कहा है :
मेवे खाओ त्याग के, जो चाहो आराम। इन भोगों में क्या घरा? नकली आम – बदाम।।
-दोहा सन्दोह गीता में तामस, राजस और सात्त्विक-त्याग के इन तीन भेदों का उल्लेख इन शब्दों में पाया जाता है :
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपयते। मोहात्तस्य परित्यागः तामसः परिकीर्तितः॥ दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात् त्यजेत्। स कृत्वा राजसं त्यागम् नैव त्यागफलं लभेत्॥ कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन!
सङ्गं त्यकत्वा फलञ्चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥ [जो कार्य अपने लिए नियत है (अनिवार्य है) उसका त्याग उचित नहीं है, मोहवश किया गया वह त्याग “तामस" कहलाता है । जिस कार्य को दुःखमय मानकर कायक्लेश के भय से त्यागा जाता है, उसका त्याग “राजस" है। त्याग करने पर भी त्यागी को उसका फल नहीं मिलता। हे अर्जुन! कर्त्तव्य मानकर अपने नियत कार्य को करते हुए जो व्यक्ति आसक्ति और फल की आशा का त्याग कर देता है, उसका त्याग “सात्त्विक" कहलाता है।]
फलाशा का त्याग ही निरपेक्ष (स्वार्थरहित) होता है। मनः शुद्धि के लिए उसे अनिवार्य बताते हुए कहा है :
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