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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ● छल • ने मुझ से कहा कि चल, नौकरी चाहिये तो बैठ जा इस जीप में। मैं बैठ गया तो मुझे यूनिफार्म दे दिया और कहा कि इसे पहिन लो। आज से तुम हमारे चपरासी हो। मैंने यूनिफार्म पहिन लिया और वै मुझे आपके पास छोड़कर रवाना हो गये। जैसे आप उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, वैसे मैं भी उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।" दूकानदार माथा पकड़कर जोर से चिल्लाया :- "हाय ! हाय!! मेरे पचास हजार रूपये चले गये ।" चपरासी भी चिल्लाया :- "हाय ! हाय!! मेरी नौकरी चली गई।" यह कोई कल्पित कथा नहीं है, घटित घटना है। पाँच हजार की रिश्वत देकर वह हजारों का लाभ उठाना चाहता था; किन्तु बदले में हजारों की हानि उठानी पड़ी। धोखे का फल उसी दिन मिल गया। एक कारीगर था । राजा की ओर से उसे मासिक वेतन मिलता था। नगर सेठों के लिए बड़ी-बड़ी इमारतें उसने ठेके पर बनाई थीं । ठेके की आमदनी का चौथा हिस्सा राजा के खजाने में जाता था। तीन हिस्से कारीगर को मिल जाते थे। जब कहीं ठेका नहीं मिलता, तब भी मासिक वेतन तो जारी ही रहता था; इसलिए उसके परिवार का भरण-पोषण आराम से होता रहता था। इतने अच्छे कलाकार को आजीविका के अभावमें कहीं दर-दर भटकना न पड़े - इस दृष्टि से मासिक वेतन के द्वारा राजा ने उसके पाँव बाँध दिये थे । राजमहल के निर्माण में भी उसीका हाथ था। धीरे-धीरे कलाकार बूढ़ा हो गया । उसके हाथ पाँव काँपने लगे। राजा ने उसे अपने पास बुलाकर एक दिन कहा :- "कारीगर ! तुमने हमारी और नगर की बहुत सेवा की है। अब हम तुम्हें पेंशन देना चाहते हैं । केवल एक अन्तिम कार्य और कर दो। नगर के बाहर नदी के उस पार एक शानदार बँगला बना दो। बस, उसके बाद तुमसे कोई काम नहीं लिया जायगा । घर बैठे आधा वेतन तुम्हें पेन्शन के रूप में जब तक तुम जीवित हो, तब तक प्रतिमाह खजाने से दिया जाता रहेगा। उस बिल्डिंग का एस्टीमेट बना दो । कितनी राशि उसके लिए अग्रिम चाहिये ? यह भी निस्संकोच बता दो।" कारीगर ने तत्काल गणना करके बताया :- "महाराज! पचास हजार रु. में पूरी बिल्डिंग बनेगी । पच्चीस हजार रु. मुझे एडवांस दिलवा दीजिये और कल से ही आपका काम शुरू करवा देता हूँ । महीने भर बाद बिल्डिंग आप को तैयार मिलेगी।" राजा को कारीगर पर पूरा भरोसा था। उसने अपेक्षित सम्पूर्ण राशि (पचास हजार रू.) अग्रिम दिलवा दी । कारीगर ने दिनभर में आवश्यक सामग्री खरीद ली और अपने मार्गदर्शन में मजदूरों से काम लेना दूसरे ही दिन शरू कर दिया; परन्तु उसके मन में विचार उठा कि यह अन्तिम काम है। इसके बाद मुझे न राजा से कोई ठेका मिलेगा और न प्रजासे ही । मेरी वृद्धावस्था को For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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