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चोरी करने वाला चोर भी अपने घर में हुई चोरी को सह नहीं सकता। इससे सिद्ध होता है कि- चोरी को वह भी बुरा कार्य मानता है; परन्तु निर्धनता से प्रेरित होकर वह चोरी करने लगता है। श्रम से भी निर्धनता को दूर हटाया जा सकता है; परन्तु आलस्य उसे श्रम से रोकता है। आलस्य का कारण है -- अज्ञान।
किसी विचारक के अनुसार चोरी की माँ निर्धनता है और बाप अज्ञान । यही कारण है कि ज्ञानी व्यक्ति निर्धनता में भी प्रामाणिक बना रहता है - चोरी नहीं करता। वह जानता
एकस्यैकंक्षणं दुःखम् मार्यमाणस्य जायते । सपुत्रपौत्रस्य पुन – र्यावजीवं हृते धने ।।
- योगशास्त्रम् (मारे जाने वाले अकेने जीव को क्षण-भर के लिए दुःख होता है, किन्तु जिसका धन चुरा लिया जाता है, उसे तथा उसके पुत्रों-पौत्रों को जीवनभर के लिए दुःख होता हैं)
इस प्रकार चोरी हिंसा से भी बड़ा पाप बन जाती है । उससे भीख माँगना अच्छा है- ऐसा एक कविका कथन है :
वरं भिक्षाशित्वं न च परधनास्वादनसुखम् । (भिक्षा माँगकर खाना अच्छा है; परन्तु दूसरे के धन का स्वाद सुख- अच्छा नहीं।) अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह भी चोरी है :
यावद् भ्रियेत जठरम् तावत्स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिको योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ।।
- महाभारतम् (पेट भरने के लिए जितना धन जरूरी है, उसी पर प्रत्येक प्राणी का स्वत्व (अधिकार) है । उससे अधिक धन पर जो अपना अधिकार मानता है, वह दण्डनीय चोर है!)
इस श्लोक के अनुसार परि ग्रह का समावेश भी चोरी में हो जाता है । उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार धन का लोभ ही चोरी का कारण है :
अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययइ अदत्तम् । (असन्तोष के दोष से दुःखी व्यक्ति लोभ से कलुषित होकर दूसरे के अदत्त (धन) को ग्रहण करता है।)
चोरी के लिए एक पारिभाषिक शब्द है - अदत्तादान। अदत्त (वह वस्तु जो किसी के द्वारा हमें दी न गई हो, उस) को ग्रहण (स्वीकार) करना ही अदत्तादान है। सूत्रकृताङ्क में लिखा
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