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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री पद्मसागरसूरि विरासत में अट्ठाईस गाँवों की जमींदारी मिली थी (जिसकी तालिका हेतु देखें पृ. ५९). आपकी ठकुराई और कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त थी. राजस्थान की भूमि अपनी वीरता और शौर्य के लिए विश्वप्रसिद्ध है. श्रीमान जगन्नाथसिंहजी ने भी एक नीतिमान् कुशल जमींदार होने के नाते अपना कारोबार बखूबी चलाया था. समय-समय की बात है. जब देश की शासन प्रणाली में बदलाव आया तो जमींदारी भी समाप्त हो गई. पिताश्री की छत्रछाया खो चुके बालक प्रेमचन्द का पालन-पोषण माता श्रीमती भवानीदेवी ने बड़ी कुशलता व धैर्य के साथ किया. महात्माओं के चरित्र में कुछ विचित्र घटनाएँ अपने आप हुआ करती हैं. कृष्ण को मुक्त होना था तो वसुदेव की हथकड़ियाँ और कारागार के दरवाजे अपने आप खुल गये. इसी तरह प्रेमचन्द की माया की शृंखलाएँ अपने आप टूटने लगी. बड़ी माँ राजरानी देवी और पितामह श्री तपसी नारायणसिंह पहले ही गुजर चुके थे. बड़े भाई साहब श्री शत्रुघ्नप्रसादसिंह और उनकी धर्मपत्नी दयावन्ती देवी भी अपने छः पुत्रों का विशाल परिवार छोड़कर अचानक हृदय रोग से काल कवलित हो गए. अब प्रेमचन्द के विशाल परिवार में एक मात्र वात्सल्यमयी माता का शिरच्छत्र रह गया था. श्रीमती भवानीदेवी अपर माँ के पुत्रों को अपना ही समझती थी, वे स्वयं धर्मपरायण थी. अपने भाई जिनका बनारस में कारोबार था उनके वहाँ रहने गई. किसी परिचित से मिलने जब अजीमगंज आई तो इस अवधि में प्रेमचन्द का जन्म समय नजदीक होने से यहीं पर रुक जाना पड़ा और फिर जमीन-जायदाद परिवार को सौंप कर उन्होंने अपना निवास अजीमगंज में कायम बना लिया. आप बड़ी ही नेक स्वभाव की उदात्त चरित सन्नारी थी. सात्विकता, शान्तिप्रियता, सरलता, धर्म-परायणता इत्यादि गुणों से आप सचमुच दैवी प्रकृति की थी. निर्भीकता और कर्तव्यनिष्ठा के कारण समाज उन्हें हमेशा श्रद्धा से सन्मानीत करता था. आचार्य सुश्रुत के मतानुसार बच्चे में माता की सारी कोमलताओं का समावेश हो जाता है. वह तो सहज रूप से मिला ही, यथार्थ तो यह है कि आध्यात्मिक यात्रा में माता का अनुग्रह न For Private And Personal Use Only
SR No.008715
Book TitleJina Shashan Ke Samarth Unnayak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2001
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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