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तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी श्री जैलसिंहजी पूज्यश्री के दर्शनार्थ पधारे और बाद में जीवन पर्यन्त आपके परम अनुरागी बने रहे.
दक्षिण के विहार के बाद आपश्री गुजरात व राजस्थान आदि के क्षेत्रों में विहार के लिए सन् १९८४ में पुनः उत्तर की ओर आए. इस वर्ष का चातुर्मास पाली में किया. चातुर्मास के पूर्व जब आचार्यश्री जोधपुर में पधारे थे उस वक्त जोधपुर नरेश श्री गजसिंहजी विनती कर आपको राजमहल में पदार्पण हेतु ले गए. उस समय पूज्यश्री की प्रेरणा से श्री गजसिंहजी ने दशहरा के दिन महल में पिछले ४०० सालों से चली आ रही भैंसे की बलि देने की प्रथा को बंद करवाई.
आपश्री की शुभ निश्रा में माघ सुदि १४, गुरुवार, वि. सं. २०४३ तदनुसार १२ फरवरी १९८७ को श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा स्थित महावीरालय-मन्दिर की प्रतिष्ठा धाम - धूम एवं उल्लास पूर्वक सम्पन्न हुई.
तदुपरांत आचार्यश्री का पुनः दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान हुआ. दक्षिणी जैन संघों की निरंतर आग्रह भरी विनती थी कि आपकी निश्रा में अनेक महत्वपूर्ण शासन के कार्य सम्पन्न कराने है, अतः प्रथम बार के विचरण से जो बीज बोये थे वे निश्चित रूप से फलान्वित हुए.
विहार करते हुए आपका हैदराबाद में आगमन होनेवाला है, ऐसा सुना तो हैदराबाद के निजाम के दामाद (मछलीपट्टणम् के राजा) ने अपनी तरफ से ऐतिहासिक स्वागत किया. जैनेतर होते हुए भी उनकी भक्ति-भावना की तुलना नहीं हो सकती थी. कुलपाकजी तीर्थ में भी आपके पदार्पण से खूब प्रभावना हुई.
कई स्थानों पर अंजनशलाका-प्रतिष्ठा व उपधान, उत्सव, महोत्सव सम्पन्न करने के पश्चात् आपने पुनः गुजरात की ओर पदार्पण किया. दक्षिण में आपके यशस्वी और जीवन्त कार्यों की यशोगाथा युगों-युगों तक जनता की जुबान पवित्र करती रहेगी.
सन् १९९२ में आपने विश्व-विख्यात कोबा जैन तीर्थ में चातुर्मास किया. आपश्री द्वारा अभिप्रेरित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र द्वारा
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