________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचार्य श्री पद्मसागरसूरि
३३
प्रभावक घटना से जैन धर्म की महत्ता में काफी अभिवृद्धि हुई. राजनैतिक महापुरुषों के दिलो-दिमाग में आचार्यश्री के दर्शन का इतना महत्व स्थापित हो गया कि तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री बी.डी. जत्ती भी दावणगेरे के आपके विहार में दर्शनार्थ आये और आपके सौहार्द्र पूर्ण व्यवहार से खूब प्रभावित हुए. यह घटना आपके दिव्य प्रभाव की परिचायक है. दावणगेरे में प्रतिष्ठा के दौरान कर्नाटक के उस समय के डी. जी. श्री जी. वी. राव ने पूज्यश्री के परिचय में आकर मांसाहार आदि व्यसनों का त्याग कर दिया और पूज्यश्री के साथ स्वयं खुले पाँव चले. उनके उद्गार थे कि मैं आज तक पशु था, आचार्यश्री के परिचय में आने के बाद मैं इन्सान बना.
दक्षिण भारत की प्रथम यात्रा की समाप्ति सन् १९८३ के वालकेश्वर (मुम्बई) के चातुर्मास से हुई. वालकेश्वर के मंदिर में काफी समय से देवद्रव्य का विवाद चर्चा का विषय बना हुआ था. स्वप्न की बोलियों के देवद्रव्य का यहाँ साधारण कार्यों में भी उपयोग होता था. कितने ही आचार्य भगवन्त यहाँ आये लेकिन इस विवाद का अन्त नहीं हो पाया था. पूज्य आचार्यश्री ने प्रेम से सबको समझाया. अपनी परंपरा और सिद्धान्त का मार्गदर्शन किया. बात सभी को समझ में आ गई और सर्व सम्मति से निर्णय किया गया कि आज से भगवान को अर्पित द्रव्य का उपयोग हम अन्य कार्यों में नहीं करेंगे.
वालकेश्वर का बाबू अमीचन्द पन्नालाल जैन मंदिर मुम्बई के प्रथम कोटि के मन्दिरों में से एक है. इस प्रकार देवद्रव्य की प्राचीन परंपरा का पुनः स्थापन देश के दूसरे जैन संघों के लिए भी उदाहरण बन गया. इसी चातुर्मास में पूर्व भारत के श्वेताम्बर श्रीसंघों में वर्षों से तीर्थ प्रबन्धन को लेकर चला रहे गंभीर विवाद को आचार्यश्री ने शेठ श्री श्रेणिकभाई की विनती से बड़ी ही कुशलता से सुलझाया व तीर्थ में हो रही आशातनाओं, मुकदमेबाजी और सरकारी हस्तक्षेप की संभावनाओं को दूर
करवाया.
पूज्यश्री की इस उपलब्धि से प्रभावित हो श्रीसंघ ने आचार्यश्री को सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक के बिरूद से सम्मानित किया. इसी चातुर्मास में
For Private And Personal Use Only