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जिनशासन के समर्थ उन्नायक आध्यात्मिक गतिविधियों की ओर निरन्तर प्रेरित करते मन ने लब्धिचन्द को व्यावहारिक शिक्षण में आगे बढ़ने नहीं दिया. ____ जीवन एक गतिशील मार्ग है. इस पर लोग आगे ही देखते जाते हैं. पीछे मुड़कर कौन देखता है, किन्तु लब्धिचंद जी को एक बार फिर शिवपुरी आना पड़ा. यह विद्याविजयजी महाराज का अपार स्नेह और ऋण था, जो उन्हें एक बार फिर वहाँ खींच लाया. कोलकाता में थे तब महाराज जी का पत्र मिला कि तुम मेरे पास आ जाओ. इस समय तुम्हारी बड़ी आवश्यकता है. लब्धिचन्द तुरन्त शिवपुरी पहुँचे और देखा तो विद्याविजयजी महाराज अपेन्डिक्स के कारण बहुत बीमार थे. आपने उनके पास तीन महिने रहकर खड़े पैर सेवा-सुश्रुषा की. मुनिश्री स्वस्थ हो गये. लब्धिचन्द को आत्मसंतोष हुआ कि उन्हें गुरु-ऋण अदा करने का कुछ अवसर मिला. मुनिवर को आपके इस वैयावच्च के अप्रतिम गुण ने गद्गदित कर दिया. स्नेह सिक्त वचनों द्वारा अति आग्रह किया कि "लब्धिचन्द तुम यहीं रह जाओ. बी. ए. करा दूंगा और यहीं पर काम भी दिला दूंगा' किन्तु लब्धिचन्द के मन में तो आध्यात्मिक चेतना का ज्वार उठा हुआ था. इसलिए 'अच्छा सोचूंगा' कहकर विद्यागुरु के चरण छुए और चल पड़े. भारत - भ्रमण
ईसवी सन् १९५२ के अन्त में आप कोलकाता से पुनः अजीमगंज चले आए. अचानक माताजी के बीमार हो जाने से आपने कई महिनों तक उनकी सेवा सुश्रुषा की. अवकाश के समय का आपने सत्साहित्य के अध्ययन मनन में भरपूर उपयोग किया. स्वामी विवेकानन्द के साहित्य का अवगाहन किया. उनके विचारों ने भी आपको अच्छा खासा उत्साहित किया. प्रकृति का सर्वोत्तम सृजन मानव जीवन है. उसका श्रेयः तत्व क्या है यह रहस्य ढूँढ़ने के लिए लब्धिचन्द का मन सतत प्रयत्नशील था.
प्रकृति के इस अनमोल अवदात को समझने की अति उत्कट भावना से प्रेरित हो लब्धिचंद शीघ्र ही भारत के प्रमुख ऐतिहासिक नगरों एवं तीर्थ स्थलों की यात्रा पर निकल पड़े. सूक्तों में कहा गया है कि देश विदेश में परिभ्रमण करने और पण्डितजनों के संपर्क से अनुभव ज्ञान की
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