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आचार्य श्री पद्मसागरसूरि वृद्धि होती है और बौद्धिक प्रतिभा जल में पड़े तेल की तरह विस्तृत होती है.
१. देशाटन २. राज दरबार में गमन ३. व्यापारियों से मिलन ४. विद्वानों की संगति और ५. शास्त्रों का अवलोकन.
संसार में इन पाँच कार्यों को ज्ञान-वृद्धि का निमित्त बताया गया है. किशोर लब्धिचंद के देशाटन का एक मात्र उद्देश्य था धार्मिक स्थलों का अवलोकन और सन्तों-महात्माओं का दर्शन वंदन. सर्व प्रथम आप विद्या और विद्वानों की नगरी काशी (बनारस) गये. उत्तर की ओर हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून तक यात्रा की. इस अवधि में किसी ने कहा कि पाण्डिचेरी में महर्षि अरविन्द का योगाश्रम देखना चाहिए तो आप तत्काल पाण्डिचेरी की ओर मुड़े. योगाश्रम के शिस्तबद्ध संन्यास जीवन को देखकर लब्धिचंद गहराई से प्रभावित हुए. मन में निश्चय कर लिया कि मुझे अब यही राह पकड़नी है. किन्तु संन्यास जीवन कहाँ और किसके सान्निध्य में आरम्भ करना है, यह निश्चित नहीं था. यहाँ से आप उत्तर भारत की ओर चल पडे. मथुरा, दिल्ली, आगरा, कोटा, ग्वालियर इत्यादि नगरों के अनेक ऐतिहासिक स्थलों, आश्रमों, धार्मिक-आध्यात्मिक संस्थानों को निकट से देखा-परखा.
लब्धिचंद की यात्रा रेल से चल रही थी. आपकी आँखें तो ग्राम, नगर, वन, उपवन, पर्वत, नदी, झरने और कुदरत की बनाई अनमोल दुनिया को देखती थी परन्तु आपके भीतर की आँखें अध्यात्म की दुनिया की सफर कर रही थी. अन्तर्मन गहरे चिन्तन में मग्न था. बस एक ही चाहना उभरने लगी थी 'साजन सलुने संयम कब ही मिले' संसार की तमाम इच्छाएँ खत्म हो चुकी थीं. नहीं था कोई वैभव का मोह. थी मात्र आत्मिक वैभव पाने की महेच्छा. आचारांगसूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है कि 'गृही तु यतिः स्यात् यतिस्तु ज्ञानी' अर्थात् मनुष्य भव का लक्ष्य साधु होने में तथा साधु का लक्ष्य ज्ञानी बनने में है. लब्धिचन्द की भावना अब दृढ़ हो गई थी कि मुझे साधु ही बनना है.
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