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पुण्य, पाप, संयोग अर्थात् पुण्याढ्य राजा की कथा
दृष्टि भी न पहुँच सके वहाँ तक फैली हुई शत्रु की सेना के मध्य घिरे हुए पंगुराज पण्याढ्य तनिक उदासीन होने लगे। इतने में किसी दैवी आवाज ने कहा, 'पंगुराज! चिन्ता मत करना, विजय तेरी है; जो आये उसे लेकर फैंकता जा।'
इतने में अचानक हवा से उड़ता हुआ एक तिनका पुण्याढ्य के हाथ में आया और उसे फैंकने पर बह वज्र बन कर धनावह के मस्तक पर मँडराने लगा।
धनावह काँप उठा, और सेना भी काँप उठी। सभी लोग हस्तिराज के समक्ष आकर मुँह में तिनका लेकर खड़े रहे और शरण में आकर 'पुण्याढ्य राजाधिराज की जय' के घोष के साथ सबने नगर में प्रवेश किया।
लोगों ने कहा कि, "जिसका पुण्य प्रवल है, उसका बाल भी दाँका कौन कर सकता है?'
देश-देश में ये समाचार पहुँचे और जो राजा पंगुराजा को छेडना चाहते थे वे सब ठण्डे पड़ गये और एक के पश्चात् एक पंगुराज पुण्याढ्य के चरणों में गिर कर, उसके सामने भेंट धर कर उसके अधीनस्थ राजा बन गये।
एक दिन पंगुराज पुण्याढ्य राज-सभा में बैठे हुए थे। इतने में वनपाल ने आकर समाचार दिये कि तपन राजर्पि का उद्यान में आगमन हुआ है। राजा पुण्याढ्य हाथी के साथ उनकी देशना श्रवण करने के लिए गया । राजा एवं प्रजा ने सिर हिला-हिला कर देशना रूपी अमृत पर्याप्त प्रमाण में अपने अन्तर में उतारा।
देशना पूर्ण होने पर पुण्याढ्य राजा ने राजर्षि भगवन् को पूछा, 'भगवन्! राज्य, समृद्धि, आरोग्य, ज्ञान आदि सब पुण्य से प्राप्त होते हैं, तो मैंने पूर्व भव में ऐसा क्या पुण्य किया था कि मुझे ऐसी राज्य-ऋद्धि प्राप्त हुई और साथ ही साथ मैंने ऐसा कौन सा पाप किया कि मैं पंगु बना?'
राजर्षि ने कहा, 'तुमने पूर्वभव में अपार पुण्य उपार्जन किया है, जिससे तुम्हें इतनी ऋद्धि प्राप्त हुई है। फिर भी उस पुण्य के साथ पाप भी किया है जिसके कारण पंगु वने हो।' _ 'भगवन्! एक साथ दो कैसे हो सकते हैं? पुण्य हो तो पाप कैसे होगा? और पाप हो तो पुण्य कैसे होगा?' राजा ने आश्चर्य से पूछा।
मुनि ने पुण्य-पाप की एकता का समाधान करते हुए कहा, 'राजन्! मन के परिणाम अनेक प्रकार के होते हैं। किये गये उत्तम कार्यों को भी मन की विकल्पना क्षण भर में मिट्टी में मिला देती है। ऐसा सब तुम्हारे पूर्व भव के जीवन में हुआ है।