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पुण्य, पाप, संयोग अर्थात् पुण्याढ्य राजा की कथा के मस्तिष्क में एक भी अर्थ अच्छी तरह नहीं बैठा। राजा ने आचार्य भगवन् श्री आनन्दचंद्रसूरीश्वरजी को राज्य सभा में निमन्त्रित किया और श्लोक का अर्थ पूछा । - सूरीश्वरजी ने कहा, 'राजन! यह हाथी कोई सामान्य प्राणी नहीं है | यह तुझे राज्य दिलवाने नहीं आया, परन्तु पूर्व भव का तेरा कोई मित्र तुझे अपने कर्त्तव्य का स्मरण कराने के लिए तेरे पास आया हो ऐसा प्रतीत होता है । अन्यथा तुझे राजाधिराज बना कर ऐसा क्यों कहा कि - 'राजन्! तू व्यर्थ मत फूल । देव, गुरु एवं सच्चे धर्म-तत्त्व को समझ और राग-द्वेष रूपी शत्रुओं का पोषण करना वन्द कर दे तथा समता आदि मित्रों की रक्षा कर ।'
'महाराज! मेरे मित्र ने जो कहा है उसका मैं किस प्रकार पालन कर सकता हूँ?' राजा ने मार्ग पूछते हुए कहा।
'क्रोध, मान, माया, लोभ अंतरशत्रु है। उनका नाश तथा समता आदि मित्रों की सच्ची प्राप्ति तो संयम में ही है और राज्य का उपभोग करते हुए संयम पाला नहीं जा सकता ।' मुनि ने सच्चा मार्ग बताते हुए कहा ।
तत्पश्चात् राजा ने आचार्य भगवन् श्री आनंदचन्द्रसूरि के पास संयम अङ्गीकार किया और उन्हीं के साथ विहार किया।
राजा के पुत्र नहीं होने से मंत्रियों ने हाथी को स्वर्ण-कलश दिया और जिसके ऊपर हाथी कलश उंडेलेगा उसे राज्य-सिंहासन दिया जायेगा ऐसा निर्णय करके "मन्त्र के पीछे सिद्धियाँ चलती हैं" उसी प्रकार हस्तिराज के पीछे सव चलने लगे।
हाथी ने गाँव छोड़ दिया, जंगल छोड़ दिया और बड़े वन में उसने प्रवेश किया। मंत्री भी उसके पीछे-पीछे चले । इतने में एक वृक्ष के नीचे वस्त्र ओढ़कर सोये हुए व्यक्ति पर हाथी ने कलश उंडेल दिया | मंत्रियों ने जय-जयकार की ध्वनि करके सोये हुए व्यक्ति का राजा के रूप में अभिनन्दन किया, परन्तु वस्त्र हटाते ही एक लूले, पंगु, वामन को देख कर मंत्री सोच में पडे कि - 'यह क्या शासन करेगा? और क्या हम ऐसे पंगु राजा के कर्मचारी बनेंगे?'
इतने में हाथी ने उस पंगु को सूंड से उठाया और अपनी पीठ पर बिठाकर पद्मपुर की ओर लौट चला।
प्रजा एवं महामंत्री दोनों को हाथी के पूर्व कर्त्तव्य का ध्यान होने से अत्यंत आश्चर्य में लीन होकर उन्होंने पंगु राजा का स्वागत किया और सभी ने उसका नाम, ठिकाना जानने की इच्छा किये बिना ही राजाधिराज का पद प्राप्त करने वाले उस पंगु को 'पुण्याढ्य' कह कर सम्बोधित किया।