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सुनन्दा एवं रूपसेन नीचे ले गई।
वाजार की ओर खुलने वाली खिड़की पर सुनन्दा और उसकी सखी बैठी है। इतने में वसुदत्त सेठ का पुत्र रूपसेन वहाँ होकर निकला और पान वाले पनवाडी की दुकान पर जा रुका । सुनन्दा ने पल भर उसे नख-शिख निहारा और अपने देह में झन झनाहट का अनुभव किया । उसने सखी को कहा, 'सखी! कैसा सुन्दर रूपवान युवक है? उसके नेत्र कैसे झुके हुए हैं? उसकी भुजाएँ कैसी लम्बी और देह कैसी प्रमाणयुक्त एवं कमनीय है?'
'सुनन्दा! पुरुषजाति क्रूर है । क्या तू यह सब भूल गई?' यह कहती हुई सखी ने सुनन्दा को पूर्व का पुरुष जाति के तिरस्कार के प्रसंग का स्मरण कराया | सुनन्दा ने कहा, 'सखी! तू समझदार होकर जले को और न जला ।' 'तो क्या करू?' 'सामने खड़े रूपसेन को मेरा एक सन्देश दे आ | यदि वह चतुर होगा तो समझ जायेगा और चतुर नहीं होगा तो ऐसे अचतुर का संग करने से क्या लाभ?' ‘ला, दे आती हूँ', कहती हुई सखी ने तत्परता दिखलाई। सुनन्दा ने कागज लिया और लिखा कि'निरर्धकं जन्म गतं नलिन्याः यया न दृष्टं तुहिनांशुविम्यम् ।' (जिसने चन्द्रमा नहीं देखा उस कमलिनी का जन्म निरर्थक है।) सखी ने गुप्त रूपसे वह पत्र रूपसेन को दे दिया। चतुर रूपसेन सव समझ गया और उसी पंक्ति के नीचे उसने लिखा कि - "उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव दृष्टा विनिद्रा नलिनी न येन' (जिसने विकसित होती हुई नलिनी को नहीं देखा उस चन्द्रमा की उत्पत्ति भी निष्फल
सखी ने पत्र सुनन्दा को पहुँचाया | पढ़ कर वह अत्यंत प्रसन्न हुई और बोली, 'जैसा रूपवान है वैसा ही चतर है।'
तत्पश्चात् रूपसेन वहाँ प्रतिदिन आने लगा और परस्पर दृष्टि मिलन होने लगा। सोते, बैठते, खाते रूपसेन सुनन्दा के चित्त में से हटता नहीं और रूपसेन के चित्त में से सुनन्दा हटती नहीं।
लोगों के समूह और दल के दल नगर से बाहर जाने लगे। छोटे-बड़े सभी अपनेअपने अनुरूप संग खोज कर बाहर निकले घर-घर में ताले लग गये । सम्पूर्ण नागर सुनसान हो गया।