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________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान का चरित्र की दुर्लभता पर प्रभावशाली उपदेश दिया, जिससे विद्युतगति राजा को प्रतिबोध प्राप्त हुआ और उसने राज्य-सिंहासन का परित्याग करके दीक्षा अंगीकार कर ली। उसने राज्य-सिंहासन अपने पुत्र किरणवेग को सौंप दिया । तत्पश्चात् राजा किरणवेग सुख पूर्वक जीवन यापन करने लगा, संसार के भोगों का उपभोग करने लगा। समय व्यतीत होने पर पदमावती रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया । सम्पूर्ण राज्य में पुत्र का जन्मोत्सव मनाया गया। सर्व प्रथम उसने अपने राज्य में किसी भी जीव की हिंसा नहीं करने का आदेश दिया और अपने राज्य को प्राणी मात्र के लिए 'अभय राज्य' के रूप में घोषित किया | दीर्घ काल के पश्चात् एक बार सुरगुरु नामक एक आचार्य का नगरी में पदार्पण हुआ। राजा एवं प्रजा सब उनको वन्दन करने के लिए उपस्थित हुए। उन्होंने आचार्य भगवन्त के श्री मुख से संसार की असारता के सम्बन्ध में तथा वैराग्यमय वचनों में वारह भावनओं का स्वरूप श्रवण किया। आचार्य भगवन्त की चन्दन तुल्य शीतल एवं सुमधुर वाणी का श्रवण करके किरणवेग राजा को प्रतिबोध हो गया और फल स्वरूप उसने पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा अंगीकार कर ली । उन महा मुनिवर ने कठोर तपस्या करके आगमों का अध्ययन किया। तत्पश्चात वे मुनिवर गीतार्थ बन गये और गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त करके वे एकाकी विचारने लगे । वे आत्म-रमणता के आनन्द में मस्त होकर सदा धर्म-ध्यान करते थे। उन्होंने धीरे धीरे आकाशगामिनी विद्या भी प्राप्त की और शाश्वत प्रतिमा के दर्शन एवं यात्रा की। वे हेमगिरि पर्वत के समीप प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्ग में रहे थे। कमठ का जीव कुर्कुट साँप मर कर पाँचवी नरक में गया जहाँ घोर कष्ट सह कर अनेक अन्य लघु भवों में जाकर उसी पर्वत की तलहटी में एक योजन लम्बी देह वाला साँप बना और घूमता हुआ किरणवेग मुनि के समीप आया। मुनिवर को देखते ही उसे पूर्व भव की शत्रुता का स्मरण हुआ और क्रोध के कारण वैराग्नि भड़क उठी। क्रोधावेश में उसने मुनिवर की देह पर अपने विषाक्त दन्त से अनेक प्रकार किये, परन्तु दयालु मुनिवर ने साँप के प्रति तनिक भी द्वेष-भाव नहीं रखा और साँप के प्रति दया भाव रखकर उसे अपने उपकारी मानने लगे। मुनिवर नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते-करते स्वर्ग गामी होकर बारहवे देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए । इस ओर वह साँप घोर हिंसा के पाप-मार्ग में जीवन व्यतीत करके अन्त में छठी नरक में उत्पन्न हुआ।
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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