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सचित्र जैन कथासागर भाग - १
इसी बीच रावण को इन्द्र के दिक्पाल वरुण के साथ युद्ध करने के लिये विवश होना पड़ा। वरुण राजा अत्यन्त शक्तिशाली एवं पराक्रमी होने के कारण रावण ने विद्याधर राजाओं से भी सहायता माँगी। राजा प्रहलाद ने अपने पुत्र पवनंजय को रावण की सहायतार्थ भेजने का निश्चय किया । पिता ने आज्ञा की. पवनंजय ने तुरन्त पिता के उक्त निर्णय को मान्य करके रावण की सेना में जाना स्वीकार किया ।
अञ्जना सुन्दरी को जब इस बात का पता लगा तव उसने विदा होते पति को कहा, 'प्राणनाथ! विदा होते समय आप अपने अन्य स्वजनों-सम्वन्धियों के साथ हँसते हैं, बोलते हैं और केवल मेरे ही साथ आप इतने उदासीन क्यों हैं? मैंने ऐसे कौन से पाप किये हैं कि जिनके कारण मैं इस प्रकार का कप्ट भोग रही हूँ? मैं आपकी प्रत्येक
आज्ञा का पालन करने वाली आप की धर्मपलि हूँ, क्या यह बात आपके ध्यान में कभी आती ही नहीं है? होगा, इसमें मैं आपको क्यों दोष दूँ? मेरे पूर्व कर्मों के कारण ही मैं इस भव में ऐसी यातना भोग रही हूँ। नाथ! मैं अन्तःकरण से प्रार्थना कर रही हूँ कि आप युद्ध में विजयी होकर शीघ्र घर लौटें ।' __ परन्तु इन शब्दों का पवनंजय पर तनिक भी प्रभाव नहीं हुआ। उसने अञ्जना के शब्दों पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और अञ्जना सुन्दरी को उसने दो मधुर शब्द भी नहीं कहे । उसे इस प्रकार रोती छोड़ पवनंजय विदा हुआ।
मार्ग में एक दिन वह एक सरोवर के तट पर बैठा था। धरा पर चाँदनी की शीतल द्युति अमृत की वृष्टि कर रही थी। इतने में पवनंजय ने एक चकवी को देखा, जो अपने चकवे के वियोग में घोर करुण क्रन्दन कर रही थी।
यह देखते ही पवनंजय के मन में विचार आया कि, 'ओह! दिन भर इस चकची ने अपने पति के साथ क्रीडा की होगी तो भी यह रात्रि के पति-विरह को सह नहीं सकती और ऐसा घोर विलाप कर रही है | यदि इसे पति-विरह के कारण इतनी वेदना है तो मेरी पत्नी बेचारी अञ्जना की क्या दशा होगी? उसे कैसी विरह-वेदना होती होगी? मैंने उसके प्रति उदासीनता रख कर कैसा अपराध किया है ? राचमुच, मैं उसका अपराधी हूँ। मुझे उसके सामने यह अपराध स्वीकार करना ही पड़ेगा।'
वह बात उसने अपने मित्र प्रहसित को कही । तत्पश्चात् वे दोनों रात्रि का विचार किये बिना आकाश-मार्ग से उड़ कर अञ्जना के महल में आये । पवनंजय न अञ्जना से क्षमा याचना की । प्रहसित सन्तरी वन कर बाहर खड़ा रहा । पवनंजय एवं अञ्जना इतने आनन्द-विभोर हो गये कि रात्रि के प्रहर का भी उन्हें ध्यान न रहा । प्रहसित ने आवाज देकर पवनंजय को बुलाया अतः वह महल से बाहर आया । पवनंजय मन