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सचित्र जैन कथासागर भाग
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है । उसने तुरन्त निर्माल्य वस्तुओं के कुँए में से आभूषण बाहर निकाले । स्वर्ण एवं हीरे के झगमगाते आभूषणों में लोहे की कड़ी के समान राजा की अंगूठी प्रतीत हुई । राजा ने पूछा, 'ये आभूषण किसके हैं ?'
दासी ने उत्तर दिया, 'राजेश्वर ! नित्य पहन कर फेंके हुए शालिभद्र तथा उनकी पत्नियों के हैं।'
तत्पश्चात् भोजन करके राजा अपने महल में गया, परन्तु जीवन पर्यन्त वह शालिभद्र की समृद्धि का भूल नहीं सका ।
(६)
राजा चला गया परन्तु शालिभद्र के मन में से राजा नहीं हटा। मेरे ऊपर राजा है और मैं प्रजा हूँ | यह समृद्धि, यह वैभव उसकी नाराजगी से छिन जाये तो यह वैभव किस काम का ? शालिभद्र ने वहीं पर निर्णय किया कि यह समृद्धि नहीं चाहिये। उसने माता को यह बात कही, 'माता! मैं श्रेणिक अथवा किसी अन्य राजा का प्रजा-जन नहीं रहना चाहता । मैं सब प्रकार से स्वतन्त्र होना चाहता हूँ और उसका मार्ग संयम है। माताने बहुत समझाया, परन्तु वह सब निष्फल हुआ । उसने नित्य एक एक पत्नी छोड़नी प्रारम्भ की।'
शालिभद्र को बत्तीस दिन बत्तीस युग के समान कठिन प्रतीत होने लगे। इतने में उसने देवदुंदुभि सुनी और जान लिया कि भगवान महावीर नगरी में रामवसरे है। उसने
हरि समा
ear एवं शालिभद्र ने चरम तीर्थपति प्रभु महावीर के पास संयम अंगीकार किया.