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मुनिदान अर्थात् धना एवं शालिभद्र का वृत्तान्त 'माताजी! रत्न-कम्बल ।' 'कितने हैं?' 'सोलह । 'सोलह कम्वलों से मेरा काम नहीं चलेगा, वत्तीस चाहिये । पुत्र की बत्तीस बहुओं में से सोलह कम्बल किसको दू और किसको न दूँ?'
व्यापारियों में से एक वोला, 'माताजी! राजा तो एक कम्वल भी नहीं खरीद सकता और आप बत्तीस की बात कर रही हैं? ये दो सौ, पाँच सौ के कम्बल नहीं हैं। एक कम्बल का मूल्य सुना है? सवा लाख स्वर्ण मुद्रा हैं।'
भद्रा माता ने दासी को बुला कर कहा, 'व्यापारी के पास से सोलह कम्बल ले ले और कोपाध्यक्ष को इनका मूल्य चुकाने का कह दे ।'
व्यापारी दंग रह गये । कुछ ही समय में कोपाध्यक्ष ने व्यापारीयों के हाथ में सोलह कम्बलों का मूल्य दे दिया। वे 'क्या समृद्धि! क्या उदारता!' कहते हुए सिर हिलाते हुए राजगृही की प्रशंसा के पुल बाँधते हुए चले गये।
दासी ने प्रातःकाल में शालिभद्र की पत्नियों को स्नान करते समय एक-एक कम्वल के दो-दो टुकडे करके प्रत्येक को दे दिये और कहा, 'माताजी ने सवा लाख स्वर्णमुद्राओं में यह रत्न-कम्वल आपके पहनने के लिए खरीदे है ।'
बहुओं ने माता के मान की खातिर कम्बल पहने तो सही परन्तु दासी को कहा कि, 'ये तो अत्यन्त चुभते है ।'
दासी ने यह बात भद्रा माता को कही । भद्रा माता ने सोचा कि देवदूष्य पहनने वाली पुत्र-वधुआ को रत्न कम्बल कैसे अच्छे लगेंगे?' 'दासी तू उन्हें कह दे कि चुभते हो तो उतार दो | मन विगाड़ कर अथवा मन दुःखी कर के माता को चुरा लगेगा ऐसा सोचकर मत पहनना ।'
दाप्ती से माता का सन्देश सुनकर पुत्र-वधुओं ने पाँव पोंछ कर कम्बल फैंक दिये और उतरी हुई वस्तुएँ जिस कुँए में फेंकी जाती थी उस कुँए में फेंक दिये।
रानी चेलना झरोखे में बैठी थी । उसने रत्न-कम्बल वेच कर लौटते हुए व्यापारियों को देखा तो दासी के द्वारा उन्हें पूछवाया कि 'कम्बल कहाँ गये?' व्यापारियों ने कहा, 'भद्रा सेठानी ने सोलह कम्बल खरीद लिये ।'
चेलना को राजा की कृपणता एवं शुष्कता बुरी लगी। उसने हठ की कि मुझे रत्नकम्बल चाहिये। राजा ने यह बात अभयकुमार को कही। अभयकुमार ने एक मंत्री को भद्रा सेठानी के पास भेजा और रत्न-कम्बल की माँग की। भद्रा माता ने अत्यन्त संकोच पूर्वक कहा, 'रत्न-कम्बल तो आज ही पुत्र-वधुओं ने