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मुनिदान अर्थात् धन्ना एवं शालिभद्र का वृत्तान्त
बड़ा कार्य किया? यह तो जुआ है; सच्चा धन है क्या ?'
सेठ ने दूसरे दिन पुनः वत्तीस-बत्तीस मुद्राएँ देकर चारों पुत्रों को भेजा । अनेक विचारों के पश्चात् तीनों ने व्यापार किया, फिर भी मूल धन में से भी कम हो गया ।
धन्ना बाजार में खड़ा था। वहाँ उसने एक चाण्डाल के पास रत्नमय पलंग देखा। धन्ना ने उसे पूछा, 'क्यों, बेचना है ?'
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चाण्डाल ने कहा, 'हाँ ।'
धन्ना ने उसे पूरी बत्तीस मुद्राएँ दे दी और पलंग लेकर वह घर लौटा। घर आकर ईस उपले अलग किये तो जगमगाते चमकते रत्नों का ढेर लग गया।
यह पलंग मूल में तो पैठन के महेश्वर सेठ का था । मरते-मरते भी उसने पलंग के पायों में धन भरा और अन्त तक उसने पलंग नहीं छोड़ा। पुत्रों को प्रतीत हुआ कि पिताजी को पलंग प्रिय था, अतः निकाल दें उनके साथ । पलंग उनके साथ निकाला गया और चाण्डाल को दे दिया, परन्तु चाण्डाल का ऐसा सद्भाग्य कहाँ कि उक्त पलंग उसके पास रहे? पलंग का धन धन्ना के भाग्य में था, अतः वह उसके घर आया ।
धन्ना इतना इतना धन लाया फिर भी बड़े भाई तो उसकी ईर्ष्या ही करते, जिससे धन्ना तंग आ गया और घर छोड़ कर प्रातः शीघ्रता से अकेला निकल गया ।
(३)
चलते-चलते मार्ग में एक खेत आया । धन्ना उस खेत के किनारे बैठ गया। मध्याह्न का समय होने से खेत का किसान भोजन करने बैठा और धन्ना को भोजन करने का निमन्त्रण दिया । धन्ना को भूख तो लगी थी परन्तु 'मैं बिना परिश्रम किये नहीं खाऊँगा'
यह कह कर उसने भोजन करने से इनकार कर दिया।
धना ने हल लिया और उसे जोत कर तनिक आगे वढाया तो वह भूमि में उतरा । धन्ना ने तनिक बल लगाया तो 'कडिंग' की ध्वनि हुई । धन्ना और किसान झुके तो उन्हें स्वर्ण के सात चरू दृष्टिगोचर हुए।
किसान ने कहा, 'भाई! ये चरू तुम्हारे ।' धन्ना वोला, 'नहीं, भाई ! खेत तुम्हारा और धन मेरा कहाँ से?"
'खेत तो मैं वर्षों से जोतता रहा हूँ। अभी तक क्यों चरू कभी नहीं निकले ?' किसान ने कहा ।
धन्ना तो चलने लगा, परन्तु किसान ने वहाँ गाँव बसाया और उसका नाम रखा 'धन्यपुर' ।
(४)
धन्यकुमार घूमता- घूमता उज्जयिनी पहुँचा, जहाँ राजा की ओर से एक ढिंढोरा पीटा