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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ में लिया कि एक अधेड़ उम्र का मुनि दण्ड पछाडता हुआ आया और बोला, 'कहाँ गया वह वैयावच्च करने वाला नंदिपेण?' __'ये रहा महाराज! यह कह कर नंदिपेण आहार का कौर पात्र में रख कर आहार
पर वस्त्र ढक कर खड़ा हुआ और मुनि का अभिवादन किया। __ 'अरे भले वैयावच्ची! नगर के बाहर वृद्ध साधु अतिसार रोग से पीड़ित है | उसे दस्ते लगती हैं, चीखता-चिल्लाता है और तू तो शान्ति से आहार करने बैठा है । अहा! ठीक है तेरी वैयावच्च की ख्याति!' _ 'चलो महाराज! कह कर नंदिपेण उस मुनि के साथ दो कदम चला । इतने में वह आगन्तुक मुनि वोला, जल के विना वहाँ जाकर करोगे क्या? साथ में जल तो ले लो।'
नंदिषेण घड़ा लेकर घर घर जल के लिए घुमा परन्तु देव-माया से कहीं शुद्ध जल नहीं मिला। नंदिषेण घूमने का अभ्यरत था । विलम्ब होने के कारण व्याकुल नहीं होता था, परन्तु मुनि वैयावच्च में विलम्ब होता होगा जिससे उसके मन में व्याकुलता बढ़ रही थी। इतने में कुछ शुद्ध जल मिला |
शुद्ध जल लेकर नंदिघेण रोगी मुनि के पास पहुँचा। इतने में वृद्ध ग्लान (रोगी) क्रोधित होकर बोला, 'तुम ही हो नंदिघेण? क्या ढोंग मचाया है? सारा गांव कहता है कि क्या नंदिपेण की सेवा? परन्तु किसने अनुभव किया है? मैं एक प्रहर से हैरान हो रहा हूँ तब तुम खेलते खेलते थोड़ा जल लेकर आये हो। ऐसा तूत (आडम्बर) न करो तो क्या कोई आयेगा?'
'समय अधिक लग गया, महाराज! क्षमा करे' कह कर नंदिपेण ने उनके अशुद्ध अंगो को स्वच्छ किया। _ 'ग्लान मुनि की देह स्वच्छ करने के पश्चात् नंदिघेण ने कहा, 'महाराज! आप गाँव में उपाश्रय में चलें तो औषधि आदि की सुविधा रहेगी।'
'नंदिषेण! तू देखता नहीं कि मुझ में एक कदम चलने की भी शक्ति है? सेवा केवल परिश्रम-मजदूरी करने से ही नहीं हो जाती, उसमें वुद्धि का उपयोग भी चाहिये ।'
'महाराज! आपने सत्य कहा । मैं आपको अपनी पीठ पर विठा कर गाँव के उपाश्रय में ले जाऊँ तो आप क्या सहन कर सकेंगे? 'तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' नंदिषेण ने ग्लान (रोगी) मुनि को पीठ पर उठाया और मन्द-मन्द कदमों से बाजार में होकर चला । वहाँ तनिक ठोकर लगी और झटका लगा तो रोगी मुनि बोला, 'ए सेवाभावी! ध्यान रख कर चल । सेवा करते करते तू मुझे भारी वेदना पहुँचाता है । तू मुझे औषध करने के लिए ले जा रहा है अथवा मार्ग में मेरा काम तमाम करना