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वैयावच्च अर्थात् महामुनि नंदिषेण की कथा
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में सदा तत्पर बना | घर-घर भिक्षा के लिए घूम कर निर्दोष आहार लाकर वह बाल, वृद्ध, ग्लान की वैयावच्च करता । पाँच सौ साधुओं की सेवा का उसने नियम लिया । मुनि का वैयावच्च किये विना वह मुँह में आहार -पानी नहीं डालता था |
कोई रोगी, अस्वस्थ मुनि को देख ले तो सभी नंदिषेण मुनि को सौंपते और कोई रोगी हो जाता तो वह वैयावच्च के लिए नंदिपेण का आश्रय खोजता | रात हो अथवा दिन, दोपहर हो अथवा प्रातःकाल जब देखो तव नंदिषेण साधुओं की वैयावच्च में लगा रहता । वह किसी समय आहार लाता तो किसी समय रोगी साधुओं का मल-मूत्र साफ
करता ।
नंदिषेण की कीर्ति देशभर में फैल गई। राजाओं की सभा में भी सेवा-भावी नंदिषेण के गुण गाये जाने लगे। अधिक फैली हुई मिट्टी आकाश में उड़ती है उसी प्रकार उसका यश भी आकाश में उड़ा और सौधर्मेन्द्र की सभा में पहुँचा । सौधर्मेन्द्र ने नंदिषेण की सेवा की प्रशंसा की, परन्तु सभा में उपस्थित दो देवों से उसकी प्रशंसा सहन नहीं हुई । अतः उन दोनों में से एक रोगी साधु बना और दूसरा उसका सहचर बना ।
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ठीक मध्याह्न का समय था । नंदिषेण के छट्ट का पारणा था । कोई मुनि बीमार है अथवा नहीं इसकी पूरी जाँच करके जब वह आहार करने बैठा और कौर हाथ
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हरि सोमपुरा
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मुनि ने कहा, नंदिषेण! आत्महत्या दुःख से मुक्त होने का मार्ग नहीं है! सौभाग्य से ही मानव भव मिलता है.