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________________ ૮૪ सचित्र जैन कथासागर भाग कलश की जगह बड़े बड़े भारण्ड पक्षियों के अण्डे रखे हुए थे और जहाँ लकड़ी के दण्ड की आवश्यकता थी वहाँ अनेक प्रकार के पशुओं की हड्डियाँ टेढी-मेढी जमाई गई थीं। देवी के मन्दिर की ध्वजा किसी वस्त्र की नहीं थी, परन्तु अधिक बालों से युक्त पशुओं की पूछों को ध्वजा के स्थान पर लगाया गया था। मन्दिर की दीवारें मारे गये पशुओं के गाढ़े रक्त की तह लगाकर रंगी हुई थीं । यह स्थान था तो देवी का, परन्तु दर्शक उस स्थान को देखते ही भयभीत हो जाता । मन्दिर के मध्य में देवी की प्रतिमा स्वर्ण के उच्च आसन पर प्रतिष्ठित थी। प्रतिमा का रूप एवं आकृति मन्दिर की भयंकरता से भी अधिक भयंकर थी। देवी के एक हाथ में एक तीक्ष्ण कैंची और दूसरे हाथ में एक मूसल था। उसके गाल दबे हुए, दाँत लम्बे, आँखें गोल और जीभ एक बालिश्त जितनी बाहर निकली हुई थी। देवी की पूजाविधि भी उसके अनुरूप ही होती थी । जल के बजाय मदिरा से उसका प्रक्षालन होता था और उस पर धतूरे, आक एवं कनेर के फूल आदि चढ़ाये जाते थे · २ (३) नवरात्रि के दिन आये। देवी के भक्तगण मन्दिर में एकत्रित हुए और उन्होंने राजा को देवी की पूजाविधि सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किया, जिसके लिए राजा ने हजारों जलचर, खेचर एवं स्थलचर जीवों की हत्या करवाई । रक्त के कीचड़ युक्त एवं चारों ओर से संहार होते जीवों के कोलाहल में देवी का उपासक राजा बोला, 'सेवको! तुमने मेरी आज्ञनुसार हवन (यज्ञ) की सामग्री सब तैयार की है परन्तु वत्तीस लक्षण युक्त मनुष्य युगल चाहिये जो अभी तक नहीं आया, जिसके अभाव में यह समस्त सामग्री अपूर्ण गिनी जायेगी। तुम सब जगह खोज कर कहीं से पकड़ लाओ ।' उस समय सुदत्त नामक गणधर भगवंत राजपुर नगर में विचर रहे थे। उनके शिष्य अभयरूचि अणगार और उनकी बहन जो साध्वी बनी थी वह अभयमती साध्वी अट्ठम के पारणे के लिए दैवयोग से भिक्षार्थ निकले। बत्तीस लक्षण युक्त मनुष्यों को खोजने वाले राजपुरुषों की दृष्टि इन दो भाई-बहन साधुओं पर पड़ी। उन्होंने उन्हें बत्तीस लक्षण युक्त मान कर पकड़ लिया और राजा के समक्ष प्रस्तुत किया । अभयरूचि अणगार तो स्थितप्रज्ञ महात्मा थे। उन्हें तो राजसेवकों के पकड़ने से अथवा इस समस्त अशान्ति से तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ परन्तु साध्वी अभयमती तनिक क्षुब्ध हुई अतः अभयरुचि ने उन्हें स्थिर करते हुए कहा, 'आर्या ! साधुओं को मृत्यु का भय क्यों रखना चाहिये ? अमुक निश्चित समय पर अपनी मृत्यु होने का हमें ध्यान हो तो विशेष धर्म-क्रिया करके हम अपनी आत्मा को उज्ज्वल बना सकते हैं। ऐसा प्रसंग हम चाहें तो भी कैसे मिल सकता है ? वहन ! अच्छा हुआ
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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