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पूर्व-भव श्रवण अर्थात् चन्द्रराजा का संयम
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अत्यन्त शानदार किया और उन सब ने भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के कर-कमलों से भाव पूर्वक दीक्षा अङ्गीकार की ।
चन्द्र राजा चन्द्रराजर्षि वने । साँप केंचुली उतार कर चला जाता है उसी प्रकार उन्होंने आभा नगरी एवं उसकी ऋद्धि का परित्याग करके संयम ग्रहण किया और सर्वस्व परित्याग कर दिया । विहार के समय गुणशेखर आदि समस्त प्रजाजन आँखों से अश्रुबिन्दु टपकाते रहे, परन्तु वे तो 'शत्रुमित्रे च सर्वत्रे समचित्तो' वन कर आभा से निकल कर धरातल पर विचरने लगे ।
चन्द्रराजर्षि ने संयम ग्रहण करके स्थविर भगवानों के पास ज्ञान- अध्ययन किया और कठोर तप प्रारम्भ किया। फलस्वरूप उन्होंने कर्म क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया ।
गुणावली आदि साध्वियों ने भी निर्मल संयम का पालन करके प्रवर्त्तिनी की आज्ञा में रह कर अपना जीवन उज्ज्वल किया ।
केवली भगवान चन्द्र मुनि महात्मा अपना अन्त समय समीप जान कर उपकारक सिद्धाचल पर आये और अन्त में वहाँ एक माह की संलेखना करके सिद्धि पद प्राप्त किया ।
सुमति साधु, शिव साधु, गुणावली एवं प्रेमला भी केवलज्ञान प्राप्त करके अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर मोक्ष में गये ।
शिवमाला आदि साध्वी अनुत्तर विमान में गई और वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जाकर मुक्ति प्राप्त करेंगी ।
इस प्रकार पूर्व भव की लीला समेट कर जगत् को लीला समेटने का उपदेश देने वाला उनका जीवन आज भी अनेक जीवों के लिये उपकारक है।
(४)
चन्द्र राजा का यह चरित्र चन्द्रराजा के रास के आधार पर संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत
है ।
धर्म एवं भक्ति की ओर जैन जनता को उन्मुख करने के लिए पूर्वाचार्यों ने अनेक गेय साहित्यिक कृतियों की रचना की है, जिसमें रासों का महान् योगदान हैं। इन समस्त रासों में चन्द्र राजा का रास अत्यन्त रसप्रद है ।
इस रास के रचयिता 'वालपणे आपण ससनेही' जैसे अनेक स्तवनों के रचयिता नैसर्गिक कवि मोहनविजयजी महाराज हैं। उन्होंने यह रास विक्रम संवत् १७८३ की पोष शुक्ला पंचमी, शनिवार के दिन अहमदाबाद में पूर्ण किया था ।
यह रास उस काल में और परावर्ती के काल में अत्यन्त लोकोपयोगी होना चाहिये