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________________ ७५ पूर्व-भव श्रवण अर्थात् चन्द्रराजा का संयम वें भाग में भी यह क्या आ सकती है? रूपमती हती घणुए डाही, पण पंखिथी रोपी रे। ___ आगल भावि कोई न समझे, कुण जाणे कुण जोशी रे।। __रूपमती समझदार एवं सरल थी फिर भी वह होश खो बैठी। उसने कोशी को अत्यन्त पीटा, उसके पंख तोड़ डाले । कोशी के रक्षक ने उसे रोका परन्तु वह बिल्कुल नहीं मानी। परिणाम स्वरूप कोशी तड़प तड़प कर मर गई। मरती-मरती को उसकी दासी ने उसे नवकार मन्त्र सुना कर धर्म प्राप्त कराया और उसने ऐसा कार्य करने के लिए रूपमती को भारी उपालम्भ दिया। तत्पश्चात् रूपमती को भी बार-बार पश्चाताप हुआ कि अरे, मैंने पक्षी के प्राण लेकर ठीक नहीं किया। तिलकमंजरी ने तो रूपमती के इस दुष्कृत्य का प्रचार करके उसकी और जैन धर्म की अत्यन्त निंदा की। रूपमती घणुए पस्तावे, कोशी ने दुःख देई पण कीg अणकीधुं न होवे वापडला रे जीवडला तू करजे काम विमासी विहडे जातु आवतुं विहडे कर्म ए करवत काशी। रूपमती ने कोशी को मार दिया परन्तु तत्पश्चात् उसे अत्यन्त पश्चाताप हुआ। अब जो कर दिया था वह तो हो चुका । सत्य बात तो यह है कि जीव को कोई भी कार्य पर्याप्त सोच-विचार करके करना चाहिये, ताकि वाद में पश्चाताप न करना पड़े। DISTRA SA InitiatimlinnintinuiRI INDIAMONTHLILALI रूपमती हती घणीये डाही, पण पंखियो रोपी रे। आगल भावि कोई न समझे, कुण जाणे कुण जोशी रे।।
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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