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________________ ७३ पूर्व-भव श्रवण अर्थात् चन्द्रराजा का संयम लडी मैंने नहीं ली, तेरी साध्वी ले गई हैं | चल तु मैं प्रत्यक्ष वताती हूँ।' यह कह कर तिलमंजरी रूपमती को साथ लेकर उपाश्रय में आई और आहार का उपयोग करने बैठते समय साध्वी को कहा, 'महाराज, मेरी सखी की लड़ी दो। तुम भिक्षा लेने जाते हो और साथ ही साथ क्या चोरी भी करने जाते हो?' ___ साध्वी बोली, 'देख लो, यह रहे पात्र और वस्त्र । मैंने लड़ी नहीं ली और हम उसे क्यों लें?' तुरन्त तिलकमंजरी ने जहाँ लड़ी बाँधी थी वह छोर खोल कर लड़ी निकाल बताई। साध्वी का मुँह उतर गया। रूपमती ने कहा, 'तिलकमंजरी, यह सव कार्य तेरा प्रतीत होता है। साध्वी पर तूने ही मिथ्या आरोप लगाया है।' तिलकमंजरी बोली, 'क्या तेरी साध्वी के प्रति ऐसी अंध-श्रद्धा है, ऐसा अंधराग है? चुराई हुई लड़ी तुझे प्रत्यक्ष यता दी और साध्वी उसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दे रही है, अतः उन्हें बचाने के लिए तु मुझे बदनाम करती है?' ____ रूपमती ने कहा, 'मैं किसी भी तरह मान नहीं सकती कि साध्वी लड़ी चुरायें, तेरा उनके प्रति द्वेष है अतः उन्हें बदनाम करने के लिए तूने यह कार्य किया है, परन्तु सखी! हंसते हुए इस प्रकार बाँधे हुए कर्म अत्यन्त दुःखदायी सिद्ध होते हैं।' रूपमती और तिलकमंजरी घर गई परन्तु साध्वीजी से यह आरोप सहन नहीं हुआ, MEETICLE L P " . % 2 - - राणी के कपट से अनभिज्ञ साध्वी ने कहा - देख लो! ये पात्र-वस्त्र. एक तिनके की भी चोरी न करने की आजीवन प्रतिता वाली हम तुम्हारी लबी की चोरी न्यो कर करेंगी?
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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