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सचित्र जैन कथासागर भाग
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(२)
'वैदर्भ देश में तिलकापुरी नगरी थी । नगरी का राजा मदनभ्रम था और कनकमाला रानी थी। राजा के तिलकमंजरी नामक एक इकलौती पुत्री थी । वह अत्यन्त रूपवती एवं बुद्धिमान् थी परन्तु उसे जैन धर्म के प्रति द्वेष था। फिर भी जैन धर्म के प्रति अनन्य रागवाली, मंत्री सुबुद्धि की पुत्री रूपमती उसकी परम सखी थी ।
तिलकमजंरी एवं रूपमती में ऐसा घनिष्ठ प्रेम था कि उन्होंने बचपन में ही ऐसा निश्चय किया था कि, 'हम विवाह करेगी तो एक ही पति के साथ, क्योंकि यदि भिन्न भिन्न पतियों से हम विवाह करेगी तो हमें अपने घर भिन्न भिन्न रखने होंगे और हमें अलग पड़ना पड़ेगा । '
मंत्री पुत्री रूपमती जैन धर्म की ज्ञाता, सुशील, धीर, गम्भीर, सद्गुणी एवं साधुसाध्वियों के साथ परिचय वाली थी । अतः एक दिन रूपमती के घर कोई साध्वी गोचरी के लिए आई। उस समय रूपमती मोतियों की माला पिरो रही थी । वह तुरन्त खड़ी हुई और साध्वीजी को भिक्षा प्रदान करने के लिए उठी । उस समय तिलकमजरी भी वहाँ बैठी थी, परन्तु उसे तो साध्वीजी के प्रति द्वेष होने के कारण उसने उनका कोई आदर-सत्कार नहीं किया, परन्तु साध्वीजी के संग में से रूपमती को हटाने के लिए उसने उसकी मोतियों की लड़ी साध्वी को पता न लगे उस प्रकार उनके वस्त्र में बाँध दी ।
साध्वीजी भिक्षा लेकर उपाश्रय में गये। रूपमती अपनी मोतियों की लड़ी खोजने लगी परन्तु वह उसे नहीं मिली अतः उसने तिलकमंजरी को कहा, 'सखी! मेरी मोतियों की लड़ी ली हो तो दे दे, मजाक मत कर ।'
तिलकमंजरी ने कहा, 'मैंने तो नहीं ली ।'
'तो यहाँ से कौन ले गया ? यहाँ तेरे अतिरिक्त अन्य कोई तो है नहीं ।' मंत्री पुत्री ने कहा ।
तिलकमंजरी बोली, 'अन्य कौन? तू जिनकी अपार प्रशंसा करती है उस साध्वी ने तेरी लड़ी ली है । तु उन्हें देने के लिए घी लेने गई तब उसने उसे उठा लिया।' 'सखी! पूज्य त्यागी महात्माओं पर मिथ्या आरोप नहीं लगाना चाहिये। वे तो लड़ी को तो क्या परन्तु रत्नों का भी स्पर्श न करें ऐसे त्यागी हैं।'
तिलकमंजरी ने कहा, 'देख लिया उनका त्याग। वे तो ढोंगी, पाखण्डी और लोगों की निन्दा करने वाले होते हैं। उन्हें मुफ्त का खाना है और मौज करनी है।' रूपमती बोली, 'व्यर्थ निन्दा करके कर्म-बन्धन मत कर। अन्य वात छोड़ । तु मेरी लड़ी दे दे ।'