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सचित्र जैन कथासागर भाग - २ तीनों साथी वे फल खा गये और कुछ ही समय में उनके नेत्रों में मादकता छा गई और एक एक करके उन तीनों की वहीं पर मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् वंकचूल को पता लगा कि यह किंपाक फल है जो देखने में सुन्दर है परन्तु खाने पर तुरन्त प्राण हर लेता
वंकचूल को उस समय आचार्य भगवन् का स्मरण हुआ। कैसे उपकारी पुरुष हैं! कैसा श्रेष्ठ नियम दिया कि अनजान फल नहीं खाना, परन्तु मेरे लिए तो यह नियम प्राण-रक्षक सिद्ध हुआ। वंकचूल वोला - ‘धन्य है, ऐसे उपकारी गुरु!
ठीक मध्यरात्रि का समय था । घने वन में पल्ली के मध्य वंकचूल की कुटिया थी। जव उसने कुटिया में प्रवेश किया तो पलंग पर उसने अपनी पत्नी को किसी पर-पुरुष के साथ गहरी नींद में सोई हुई देखा । देखते ही वंकचूल की भौंहें तन गई। उसने म्यान में से तलवार निकाली और एक ही प्रहार में दोनों का अन्त करने का विचार किया। उस समय उसे गुरुदेव द्वारा दिया गया सात कदम पीछे हटने का नियम स्मरण हुआ। वह सात कदम पीछे हटा। इतने में खुली रखी हुई तलवार दीवार से टकराई तो वह पलंग पर सोया हुआ पुरुष तुरन्त वैठ गया और बोला, 'यह कौन है?' ।
तलवार ज्यों की त्यों हाथ में रह गई और वंकल वोला, 'वहन पुष्पचूला! तूने क्यों यह पुरुष का वेष पहना है?'
पुष्पचूला ने कहा, 'भाई! आज पल्ली में नटों का खेल था, अतः मैं तेरे वस्त्र पहन कर खेल देखने गई थी। आई तब थक कर चूर हो गई थी। अतः ऐसे ही भाभी के साथ पलंग पर सो गई। इसमें मैंने क्या बुरा किया है जो तुम तलवार लिये लालपीले हो रहे हो?'
'बहन, जो हुआ वह अच्छा हुआ, अन्यथा तू और तेरी भाभी दोनों में से आज एक भी जीवित नहीं रहती। मैं तो तुझे पर-पुरुष मानकर दोनों का एक ही प्रहार में काम तमाम कर देता, परन्तु मुझे मुनिवर के दिये हुए नियम स्मरण होने के कारण सात कदम पीछे हटा तव मेरी तलवार दीवार से टकराने की आवाज सुन कर तू जग गई और तेरा स्वर पहचान लिया ।' । __'बहन! कैसे उपकारी महाराज! यदि यह नियम न होता तो मैं तेरा हत्यारा बनता
और आजीवन इस पाप का प्रायश्चित करके मरता। सचमुच, मुनिवर पूर्ण वर्षावास में रहे तव उनका प्रवचन सुना नहीं। यदि पहले यह पता होता तो मुनिवर का लाभ लिये विना रहता ही नहीं।'