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संसार का मेला अर्थात् चन्दन मलयागिरि 'यहाँ आ, उतार गट्ठर।' स्त्री ने गट्ठर उतारा परन्तु व्यापारी की दृष्टि लकड़ियाँ देखने की अपेक्षा उस स्त्री के अंगोपागों को निहारने लगी। उस स्त्री ने कहा, 'सेठजी पैसे दीजिये, मुझे जाना है।' व्यापारी ने अनुमान से अधिक मूल्य दिया और मलयागिरि पैसे लेकर अपनी कुटिया पर चली गई।
नित्य मलयागिरि लकड़ी का गट्ठर लाती और वह व्यापारी दुगुना तिगुना मूल्य देता। इस तरह तीन-चार दिन व्यतीत होने पर मलयागिरि ने गट्ठर उतारा कि व्यापारी के सशक्त सेवकों ने तुरन्त मलयागिरि को रथ में खींच कर रथ को आगे बढ़ा दिया। मलयागिरि ने छूटने के लिए अत्यन्त उछल-कूद की परन्तु उन काल-भैरवों के समक्ष उसके समस्त प्रयत्न निष्फल रहे । तनिक दूर जाने पर व्यापारी बोला, 'मलयागिरि! यह देह क्या लकड़ियाँ बेचने के योग्य है? तू मेरी अर्धाङ्गिनी बन जा और यह समस्त वैभव तु अपना समझ कर मेरे साथ रह ।' मलयागिरि हाथों से कान बन्द करके बोली -
अग्नि-मध्य बलवो भलो, भलो ज विष को पान |
शील खंडवो नहीं भलो, नहीं कुछ शील समान ।। __ 'व्यापारी! दूर हट जा। मेरी देह में प्राण रहेगा तब तक मैं अपना शील खंडित नहीं करूँगी । यदि तुने मेरा शील खंडित करने का प्रयास किया तो मेरी लाश के अतिरिक्त तेरे हाथ में कुछ नहीं आयेगा।' सौदागर भयभीत हो गया और उसे धीरे-धीरे अपने पक्ष में करने के प्रयत्न में लग गया।
अव मलयागिरि व्यापारी के साथ रहती हुई अपने समय को तप, ज्ञान, ध्यान और जिनेश्वर-भक्ति में व्यतीत करने लगी।
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मलयागिरि व्यापारी के साथ रहती हुई अपना समय तप, ज्ञान, ध्यान एवं प्रभु-भक्ति में व्यतीत करने लगी.