SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ तपा कर उसमें से माँस एवं रक्त की धाराएँ प्रवाहित की। वाल-मुनि गजसुकुमाल ने सोमशर्मा पर क्षमामृत की धारा प्रवाहित की। उन्होंने अन्तःकरण से सोमशर्मा का सत्कार किया और कहा, 'मरणान्त उपसर्ग करने वाले सोमशर्मा! तुम सचमुच मेरे सच्चे उपकारी हो। संयम की आराधना की दृढ़ता ऐसी परीक्षा के बिना थोडे ही समझ में आती? हे चेतन! दृढ़ता रख, गर्भावास के अनन्त बार के दुःखों के सामने इस आग के एक समय के दुःख की क्या बिसात है?' मुनि ने मन सुदृढ़ किया। अंगारों ने देखते ही देखते सम्पूर्ण देह को जला डाला। फट फट फूटें हाडकों रे लाल, टट-टट टूटे चाम रे। सन्तोषी ससरो मल्यो रे लाल, तुरत सयुं तेनुं काम रे।। मुनिवर ने मुँदे नेत्रों से, शान्त हृदय से असह्य एवं अपार वेदना सहन की । उन्होंने आत्म-रमण में अपने जीव को लगाया । शुक्ल ध्यान की धारा में अग्रसर होते हुए गजसुकुमाल ने उसी रात्रि में इस ओर तो केवलज्ञान प्राप्त किया और दूसरी ओर नश्वर देह का त्याग करके उनकी अमर आत्मा अमरधाम मुक्ति-निलय में जा बसी। सोमिल आग की लपटों से जलते गजसुकुमाल को देख कर अत्यन्त हर्षित हुआ और 'सुकोमल बालिका के जीवन में आग लगाने वाले तेरे लिए यह दण्ड उचित है' कहता हुआ वह नगर की ओर बढ़ चला । दूसरे दिन श्री कृष्ण ने नेमिनाथ भगवान को वन्दन करके अन्य मुनियों को वन्दन किया, परन्तु गजसुकुमाल को वहाँ न देख कर भगवान को पूछा, 'भगवान्! गजसुकुमाल मुनि कहाँ हैं?' भगवान ने उन्हें उनके मोक्ष-गमन तक का समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। वृत्तान्त सुनते-सुनते श्रीकृष्ण के नेत्रों के सामने अँधेरा आने लगा। उन्हें सोमशर्मा पर अत्यन्त क्रोध आया। यह समाचार सुन कर माता देवकी की क्या दशा होगी - इस विचार से वे अत्यन्त दु:खी हुए और उनको वन्धु-विहीन, निराधार बनने का अत्यन्त दुःख हुआ। । भगवान ने श्री कृष्ण को धैर्य बँधाते हुए कहा, 'गजसुकुमाल को एक ही रात्रि में इस प्रकार की महान् सिद्धि प्राप्त कराने वाले सोम शर्मा पर आप क्रोध न करें। अपना ही उदाहरण लो। आप यहाँ आ रहे थे तब एक वृद्ध ब्राह्मण को अपनी कुटिया बनाने के लिये ईंटे उठाते आपने देखा। यह देख कर आपको ब्राह्मण पर दया आई और आपने तथा आपके परिवार ने ईंट उठाने में उसकी सहायता की, जिससे उसका कार्य शीघ्र सम्पन्न हो गया। सोमशर्मा ने उपसर्ग सहन करने वाले गजसुकुमाल को
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy