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सचित्र जैन कथासागर भाग देख कर वह बोली, 'यह रजोहरण तो मेरे भाई का है, यह यहाँ कहाँ से आया? यह रक्त-रंजित क्यों है ? राजाजी! आप जाँच करें। मेरे भाई का किसी ने वध तो नहीं किया ? राजा का मुँह उतर गया। रानी को सव बात का पता लग गया और वह बोली, 'राजन्! आपने बिना सोचे-समझे मुनि का वध करवाकर अपने सम्पूर्ण राज्य को आपत्ति में डाला है। जिस राज्य में पाँच-पाँचसौ मुनियों की हत्या हो वह देश कदापि सुखी नहीं रह सकता । राजन्! आपको यह क्या सूझा ?' इस प्रकार विलाप करती हुई पुरन्दरयशा को शासनदेवी ने उठाया और उसे भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के पास रखा । उसने भगवान के कर-कमलों से दीक्षा अङ्गीकार की और आत्म-कल्याण किया ।
स्कन्दक अग्निकुमार बना । उसे अपने पूर्व भव का स्मरण हुआ । उसने चारों ओर अग्नि की ज्वालाएँ उत्पन्न कीं और कल का कुम्भकार नगर दण्डकारण्य बन गया। आज भी वह दण्डकारण्य स्कन्दक के उन शिष्यों की क्षमा का आदर्श प्रस्तुत कर रहा है ।
वध परिषह ऋषिये खम्या, गुरु खन्दक जेम ए ।
शिवसुख चाही जो जंतुआ तव, करशे कोप न एम ए ।।
विशेष- इस कथा में पालक को पुरोहित बताया गया है जबकि उपदेशमाला आदि में उसे मंत्री बताया हैं ।
( ऋषिमंडलवृत्ति से)