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क्षमा की प्रतिमूर्ति स्कन्दकसूरि का चरित्र त्याग करा कर उन्होंने संकल्प कराया।
चार सौ निन्नाणचे साधु पेल दिये गये | केवल एक बाल-साधु शेष रहा। स्कन्दक ने पालक को कहा, 'पालक! अब तू मुझे पेल और तत्पश्चात् इस बाल-साधु को पेलना क्योंकि मुझसे इसका पेला जाना देखा नहीं जा सकेगा।'
पालक को तो स्कन्दकसरि की आँखें जो न देख सके वही करना था। उसने वालसाधु को कोल्हू में डाला । क्षमाशील वाल-साधु ने मन को तो अत्यन्त नियन्त्रण में रखा, परन्तु देह से जो चीख अथवा रुदन निकलता उसे दवा नहीं सका।
चार सौ निन्नाणवे मुनि पेले गये। और समाधिभाव से वे सब केवली बने।
चार सौ निन्नाणवे मुनियों ने आत्म-कल्याण किया, परन्तु बाल-मुनि को पेला जाता देखकर स्कन्दक के धैर्य का वाँध टूट गया। उन्होंने संकल्प किया, 'भले मैं मर जाऊँ परन्तु यदि मेरे तप एवं संयम का फल हो तो मैं इस पुरोहित, राजा एवं नगर का नाश करूँ!'
देखिये, पुरोहित रूठा, परन्तु राजा अथवा नागरिकों को इससे किसी को कुछ सम्वन्ध नहीं था। स्कन्दक पेले गये, सब आराधक बन कर मोक्ष में गये परन्तु वे स्वयं विराधक बन कर अग्निकुमार बने और भगवान का कथन सत्य ठहरा।
(८) राजा-रानी झरोखे में बैठे थे जहाँ एक रक्त-रंजित रजोहरण आ गिरा। रानी ने उसे हाथ में लिया. जिसमें उसके स्वयं के हाथ की रत्न-कम्बल की ओटन थी। उस
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आंघा हाथ में लेकर रानी ने कहा : यह रजाहरण मेरे बांधव का है अरे! खून संछना हुआ यहाँ पर कंसं