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और भी अधिक मुखरित वन व्यथित करती है, और मुझे यह व्यथा.... वेदना.... सचमुच खूब अच्छी लगती है ।
६०. अमावस्या
राहू से वह दब रहा है ।
भला ऐसे में वह पृथ्वी को प्रकाशित कर स्नेह कैसे प्राप्त करें ?
प्रिय नवकार !
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पुर
गुप्त ज्योति नवकार !
आज अमावस्या की महा श्यामला रजनी है । रजनी पति चन्द्र आज कलाविहीन बन गया है। उसकी स्नेहमयी एक भी किरण
प्रकाश विखेरती नजर नहीं आती ।
वस्तुतः मेरा भी यही आज बेहाल है । अनादि अनन्त काल से
मेरी चन्द्र जैसी सौम्य आत्मा अज्ञान राहू से दब गई है ।
इस श्यामला रात्रि में बुध गुरु शुक्र के तारे मात्र झिलमिलाते हैं... टिमटिमाते हैं । और प्रकाश के कुछ कण बिखेर जाते हैं मेरा प्रयाण महा विकट है फिर भी ?
हे नवकार महान
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