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किंतु.... तुम हो कि दूर अतिदूर चल जाते हो, मेरे दूसरे स्नेहियों को भी दूर अति दूर भेज देते हो... और ? जिसके साथ मुझे स्नेह नहीं। स्नेह होना संभावित नहीं। बोलने तक का भी कोई सम्बंध नहीं। वैसों को समीप अतिसमीप ला रखते हो। वे सब मझे बलवाने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु मुझे उनके साथ बोलना अच्छा नहीं लगता। और न बोल तो....? उन सब पर दुःख का बवंडर छा जाता है। ऐसे समय मौन के सिवाय दूसरा भला कौनसा सुन्दर तरीका हो सकता है ? मैं ऐसा तरीका अपनाना चाहता हूँ, कि किसी को मनोदुःख न हो
और मेरा कार्य भी पूर्ण हो जाय। प्रियतम ! नवकार ! ! जब कि मौन से, नीरस बातों में व्यतीत होता समयतुम बचा लोपरन्तु ऐसे समय में तुम्हारी याद ।
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हे नवकार महान
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