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fe १२. गर्जना
महामेघ नवकार ! मेरा जड-जर्जरित मन कब से मछित हो पडा था! वह चैतन्य पा जाए यही तीव्र कामना थी। उसी समय तुम्हारे आषाढी मेघ जीवनाकाश में उमड घुमड कर घिर आये। सहसा महामेघ ने गर्जना की। सर्वत्र सुरीली घंटियों की सी ध्वनि उभर आयी। जिस तरह कुमार देवताओं के गेंद खेलते समय प्रायः सुनायी देती है। चपला चमकी...बिजली कौंध उठी पल भर में और मेरा मूच्छित मन किंचित हिलने लगा। झडी लग गई झरझर-झरमर.... रिमझिम रिमझिम। प्रभो, प्रभो ! महामेघ महामेघ !! तुम्हारे आषाढी गर्जन-तजन से.... मेरा वही पुराना मन जड जर्जरित पुनः पल्लवित सजीव हो रहा है। चैतन्यमय बनता नजर आ रहा है ।। ओह, मेरी चेतना ! सदा के लिए तुम्हारी साधना में जुड़ जाएगी। और मैं, मेरा तन-मन तुम में लीन तल्लीन ।
हे नवकार महान
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