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गो धन, गज धन, वाजिधन,
__ और रतन धन खान, । जब आवे संतोष धन,
सब धन धूलि समान ।।
सबे सहाय संबल के, कोऊ न निबल सहाय। पवन जगावत आग को, दीप ही देत बुझाय।।
"चोर बनो तो प्रभव चोर जैसे बनो, आये थे, द्रव्य रत्न चुराने, और चुराये तीन भाव रत्न, जो कभी लुटाने से लुटते नही। वे अखूट हैं। कदाचित् कोई लूट ले, तो उसका भी कल्याण हो जाता है।"
नदी-किनारे नर प्यासा कब रहता है? या तो वह आलसी है या नदी में नीर नहीं। कल्पवृक्ष के नीचे नर भूखा कब रहता है? या तो वहाँ कल्पवृक्ष ही न हो, बबूल हो, या नर भाग्यहीन।
“सम्यक् दर्शन और धर्म श्रवण मनुष्य के तीनों काल के सद्भाग्य का सूचक हैं।"
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